पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४५८

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मंकीऋषिप्रबोधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६, (१३३९) एकता परमार्थ स्वरूपविषे होती हैं ॥ हे ऋषीश्वर ! सजातीय वस्तु मिलि जाती है, जैसे जलविषे जलकी बूंद डारिए तौ मिलि जाती है, काहेते जो एकरूप है, तैसे बोधकरिकै सर्व पदार्थकी एकता भासती है, काहेते जो द्वैतसत्ता है नहीं, जैसे स्पद निस्पंद दोनों पवनही हैं, जैसे जल अरु तरंग अभेदरूप हैं, तैसे विश्व परमार्थस्वरूप है; ताते ऐसे निश्चय करौ कि; सर्व ब्रह्मस्वरूप है, अथवा आपको उठाय देव, जो मैं नहीं, जब तूही न हुआ, तब विश्व कहते होवै ॥ हे मंकीऋषि । प्रथम जो अहं होता है तो पाछे ममत्व होता है, जो अहही न रहूँगा तौ ममत्व कहां रहैगा, इस अहंका होनाही बंधन है, इसके अभावका नाम मुक्ति है ॥ हे मित्र ! इस खुक्तिविषे क्या यत्न है, यह तो अपने आधीन है जो मैं नहीं,जब अहंकारको निवृत्त किया तवशेष वही रहेगा, जो सर्वका परमार्थरूप है, तिसीको ब्रह्म कहते हैं । हे मुनीश्वर । जब अहंकार ऊरता है, तब, नानाप्रकारकी वासना होती है, तिस वासनाके अनुसार अनेक जन्मको पाते हैं, जो वर्णन किये नहीं जाते हैं, जैसे पवनकार तृण भटकते फिरते हैं, तैसे वासनाकारकै जीव भटकते फिरते हैं, जब पर्वतते कंकर गिरता है, तब चोटै खाता नीचेको चला जाता है, तैसे स्वरूपके प्रमादकार जन्मजन्मांतर पाते चलेजाते हैं, घटीयंत्रकी नाईं कबहूँ ऊर्ध्व, कबहूँ अधको जाते हैं, अपनी वासनाके अनुसार, जैसे खेनु हाथकार ताडन किया कबहूँ ऊर्ध्व, कबहूँ अधको जाता है । हे अंग 1 इस संसारका बीज वासना है जब वासना निवृत्त होवै, तब सर्वकी एकता होजाती है, जबलग संसारकी वासना दृढ है, तबलग एकता नहीं होती, जैसे दूध अरु जल मिलता है, उनका संयोग हो जाता है, तैसे भी आत्मा अरु विश्वका सयोग नहीं, आत्मा केवल अद्वैत है, अरु सर्वका अपना आप है, जैसे मृत्तिकाही घटदिकरूप हो भासती है, तैसे आत्मा सत्ताही जगतरूप हो भासती है, ताते आत्माते इतर कछु वस्तु नहीं ॥ हे साधो । आत्मा अरु दृश्यका संयोग कछु नहीं, काष्ठ अरु लाववत् अथवा घट अरु आकाशवत् संयोग कछु नहीं, काहेते कि, आत्मा अद्वैत है, सर्व दृश्य बोधमात्र ।। हे साधो ! जो जड़ है सो चेतन नहीं होता, अरु चेतन जड़ नहीं होता