पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४६८

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भावनाप्रतिपादनोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६.(१३४९) शताधिकपंचाशत्तमः सर्गः १५० भावनाप्रतिपादनोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! ज्ञानवान्की बुद्धि निर्मल हो जाती है। हृदयविषे शीतलता होती है, चेतन रसकार बुद्धि पूर्ण होती हैं, दूसरा भान उठि जाता है, ताते तित्य अंतर्मुखी होहु, अरु वीतराग निर्वासीहोहु, चिन्मात्र निर्मल शतरूप सर्व ब्रह्मकी भावना करु, ब्रह्मपदको पायकारे नेतिके अनुसार चेष्टा कर, जो हर्षका स्थान होवे, तिसविष हर्ष करु जो शोकका स्थान होवे, तहाँ शोक करु, जैसे अज्ञानी करते हैं, तैसे करु, अरु हृदयविष आकाशकी नाँई रहु ॥ है रामजी जब इष्टकी प्राप्ति हो, तिससाथ स्पर्श करहु, परंतु हृदयविषे तृष्णा न होवे, जब युद्ध आय प्राप्त होवे तब शूरमा होकार युद्ध करहु, अरु जहाँ दीन होवै तहाँ दया करह, जो राज्य आय प्राप्त होवे, तिसको भौगहु, जो कोऊ कष्ट आय प्राप्त होवै तिसको भी भोगहु ॥ हे रामजी ! सब चेष्टा अज्ञानीकी नई कहू; अपनें हृदयविषे, सदा समता रहैं, इतर कछु फुरै नहीं, रागद्वेषते रहित सदा निर्मल हो, जब तू ऐसे निश्चयको धारैगा तब तुझको खेद कछुन होगा. यद्यपि बड़ा दुःख इंद्रका वज्र पड़े तो भी तुझको स्पर्श न करेगा । हे रामजी! तेरा रूप कैसा है, जो शस्त्रकार छेदा नहीं जाता, अरु अशिकार जलता नहीं, जलकार गलता नहीं, पवनकरि सूरवता नहीं; केवल निराकार अजर अमर है, सर्वका अपना आप हैं ।। हे रामजी ! कष्ट तब होता है, जब विलक्षण वस्तु होती है, अग्नि तदं जलाती है, जब भिन्न काष्ठ आदिक वस्तु होती है, अग्निको अग्नि तौजलाती नहीं, जलको जल तौ गालता नहीं ताते तू अपने आपविषे स्थित होहु ।। हे रामजी । संवित्रूप आलयवस्थिर स्थान है, तिसविषे स्थित हो, जैसे पक्षी सर्व औरते संकल्पको त्यागिकरि आलयविषे स्थित होता है तब सुख पाता है, तैसे जब तू सर्व कलनाको त्यागिकार अंतर्मुख संविविफे स्थित होवैगा तब रागद्वेषरूपी धुंध कोऊ न रहेगा । हे रामजी ! संसाररूपी समुद्र बडा प्रवाह है, तिसते निकसना तब होवे, जब आश्रय होवे सो आश्रय तुझको