पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४९७

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(१३७८) गवासिष्ठ । तैसे आत्मा अरु जगविषे भेद नहीं, जैसे पत्थरके ऊपर लकीर काढिये सो पत्थरते भिन्न नहीं, तैसे ब्रह्मते जगत् भिन्न नहीं ॥ हे रामजी ! देश काल पृथ्वी आदिक तत्व, अरु मैं मेरा सब आत्मरूप है, अरु अविनाशी है, काहेते कि, अजन्मा है, जिनको ऐसे निश्चय हुआ तिनको रागद्वेष नहीं रहता, सब आत्मरूपही भासता है। इति श्री योगवासिष्ठ निर्वाणप्रकरणे जगदुपदेशवर्णनं नाम शताधिकसप्तपंचाशत्तमः सर्गः ॥ १५७॥ शताधिकाष्टपंचाशत्तमः सर्गः १५८, परमनिर्वाणयोगोपदेशवर्णनम् । | वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! शुद्ध आत्मतत्त्वविपे जो संवेदन फुरी है। तिम संवेदनकर आगे जगत् भासा है, जैसे किसीके नेत्रविघे एक अंजन डारिरि आकाशविषे पर्वतउड़ते दिखाते हैं, तैसे अनहोता जगत्फुरणेकार भासता है ॥ हे रामजी ! ब्रह्मस्वर्गविषे अरु चित्तस्वर्गविषे भेद कछु नहीं. परमार्थते एकहीहै,दृष्टि सृष्टि अरु वस्तु पर्यायहैं, अरु नानातत्त्व भी इसकी भावनाकार भासते हैं, आत्माविषे दूसरा कछु नहीं बना, चित्त अरु चैत्य आत्माते इतर नहीं, चित्तही चैत्य होकार भासता है, ज्ञानकारिकै इनकी एकता होती है, इसीते दृश्य भी द्रष्टारूप है, जैसे स्वप्नविषे शुद्ध संवितही ३श्यरूप होकार स्थित होती है, अरु जागेते एक हो जाती हैं, सो एकता भी तब होती है, जब वही रूप है, ताते तू अबभी वही जान, दृश्य दर्शन द्रष्टा त्रिपुटी सब वहीरूप है। हे रामजी ! जो सजाती है, तिसकी एकता होती है, विजातीकी एकता नहीं होती, जैसे जलविषे जलकी एकता होती है, तैसे बोधकर सबकी एकता होती है, ताते दृश्य भी वहीरूप है, जो एक्कता होजाती है, जो दृश्य कछु आत्माते भिन्न होती तौ एकतान होती ॥ है रामजी । आकाश आदिक तत्त्व भी आत्मरूप हैं, जिसते यह सर्व है, अरु जो वह सर्व है, तिस सर्वात्माको नमस्कार है, बहुरि कैसा है आत्मा, सर्वव्यापी है, अरु सर्वगत है, सर्वको धारि रहा है, अरु सर्व वही है, ऐसे सर्वात्माको मेरा नमस्कार है, जो कछु भासता है, सव