पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५१२

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बलैकताप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ११३९३ ) अहंकार भी मिथ्या है, अरु जगत भी मिथ्या है, जब तू अपने स्वरूपविषे स्थित होवैगा, तब जगद्धम मिटि जावैगा, जैसे स्वप्रविषे जगत् भासता है, अरु सुंदर पदार्थ भासते हैं, तिनकी इच्छा करता है, जबलग जागा नहीं तबलग जानताहै कि, यहू. पदार्थ सदैव हैं, नाश कदाचित नहीं होते, अरु कहताहै कि, अमुकका रूप देखिये, अमुकका भोजन करिये, इत्यादिक इच्छा करताहै, जब जाग उठा तब जानता है, कि मेराही संकल्प था, बहुरि वह पदार्थ सुंदर स्मरण भी होते हैं, अथवा • भासते हैं तो भी उनको मिथ्या जानता है, तैसे जब आत्मस्थितिविषे जागता हैं तब सर्व ब्रह्मही भासता है । हे रामजी ! इस जगतका बीज अहंता है, जैसे दुःखका बीज पाप होता है, तैसे जगतका बीज अहंता है, ताते तुम निरहंकार पदविषे स्थित हो, यह सब तेराही स्वरूप है, भ्रमकारकै जगत् भासता है । हे रामजी 1 जगत्का अत्यंत अभाव है, जैसे जेवरीविषे सर्पका अत्यंत अभाव है, अरु भ्रमदृष्टिकारकै सर्प भासता है, जब विचाररूपी दीपकसे देखता है, तब सर्पका अभाव हो जाता है, तैसे आत्माविषे यह जगत् भ्रमकारकै भासता है, जब विचारकारकै जगत्का अभाव निश्चय करेगा, तब आत्मपद ज्योंका त्यों भासैगा, जैसे वसंतऋतु आती है तब सब फूल फल टास दृष्टि आते हैं, सो एकही रस एती संज्ञाको धारता है, तैसे तू जब आत्मपदविर्षे स्थित होवैगा, तब तुझको सब आत्मरूपही भासँगा, अरु सर्व नाम भी आत्माही भासैगा। हे रामजी ! आदि भी आत्माही है, अरु अंत भी आत्माही होवैगा मध्य जो जगत्के पदार्थ भासते हैं, तिनकी और सत जावडु, जो इनके जाननेवाला है, जिसकार सब पदार्थ प्रकाशते हैं, तिसविधे स्थित होटु,अरु यह मनुष्य सब मृगकी नई हैं,जैसे मरुस्थलविषे जल जानकर दौडते हैं, तैसे जगरूपी मरुस्थलकी भूमिका शून्य है, अरु तीनों लोक मृगतृष्णाका जल है, तिसविषे मनुष्यरूपी मृग दौड़ते हैं, अरु दौड़ते दौडते हार पड़ते हैं, शौतिको प्राप्त कदाचित् नहीं होते काहेते कि जगत्के पदार्थ सब असत्य हैं । हे रामजी ! रूप अवलोकन मनस्कार सब मृगतृष्णाका जल है, इनको जो सत्य जानता है सो मूखे हैं, अरु यह जगत् गंधर्वेनगरकी नई है, तू जोगिकर देख, इसको