पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५२०

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मनमृगौपाख्यानयोगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १४०१ ) ‘योंका विषय है तिसका नाशभी होता है, अरु जो इंद्रियों अरु मनका विषय नहीं, तिसका नाश नहीं होता, सो अविनाशी पदको पाता है, अरु जैसे किसीको बाण लगता है, अरु तिसकी विरोधी बूटी उसके सन्मुख राखिये तो निकस आता है, तैसे अनुभवरूपी बूटीके सन्मुख हुए मोह बंधनरूपी शर खुल पड़ते हैं, अरु परम पदको पाता है । हे रामजी । ज्ञानवान् जगत्ते मृतक होजाता है, उसको संसारका लेप कछु नहीं लगता, जैसे लकड़ीविना अग्नि शांत हो जाती हैं, तैसे वासनाते रहित ज्ञानवान्की चेष्टा शांत हो जाती है, अर्थ यह कि, संसारकी सत्यताते रहिन चेष्टा होती है, बहुरि संसाररूपी अग्नि उदय नहीं होता, अरु द्वैत एक कल्पना भी मिटि जाती है, अरु उन्मत्तकी नाई अपने स्वरूपविषे घूम रहता है, जैसे मरुस्थलकी धूपकी इच्छा पैंडोई नहीं करता तैसे ज्ञानी विषयकी तृष्णा नहीं करता, जिसने आत्मअनुभवरूपी अमृतपान किया है, तिसको विपरूपी कांजीकी इच्छा . नहीं रहती, वह पुरुष सदा निर्वासी है, जब यह पुरुष निवासी होता है, तब चंचल जो मनकी वृत्ति है सो सब लीन हो जाती है, केवल आत्मत्वमात्र पद रहता है, अरु मैं मेरा यह भावना नष्ट हो जाती हैं, जबलग चित्तका संबंध होता है, तबलग मैं मेरा भासता है, जब चित्तका संबंध मिटा तब एकाकार हो जाता है, जैसे एक सूखा काष्ठ अरु एक गीला काष्ठ होता है, सो सूखा शुद्ध कहता हैं, अरु गीला उपाधिक कहता है, जब जल सूख गया, तब शुद्ध होताहै। तैसे जब मनकी उपाधि नष्ट भई, तब शुद्ध आत्माही रहता है, अरु एकरस भासता है ॥ हे रामजी ! संसार द्वितीय भ्रमकारिके भासता हैं, जैसे पत्थरकी शिलाविषे पुतलीअनउपजतीभासती है, सो न सत् है, न असत् है, जब पत्थरते भिन्न कार देखिये,तब सत् नहीं, जो शिलाकारि देखिये तब वही रूप है,तैसे जगत् आत्माते भिन्न सत्य नहीं, आत्मसत्ताते आत्मरूप है, जैसे छोटेबालकके हृदयविषेजगतका शब्द अर्थ नहीं होता तैसे ज्ञानीकी चेष्टाभी प्रारब्धवेगिकारकै होती है, परंतु उसके हृदयविषे जगत्के शब्द अर्थका अभाव है ॥ हे रामजी! जो कछु प्रारब्ध होतीहै।