पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५३९

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(१४२० ) योगवासिष्ठ । अनुसार जगत्को देखते हैं, ताते तुम जागहु अरु वासनाके पिंजरेको . काटिकर आत्मपदको प्राप्त होहु ॥ हे रामजी ! अज्ञानकारकै जो आत्मपदते सोये पडे हैं, अरु वासनाके पिंजरेविषे पड़े हैं, तिन अज्ञानीकी नई तुम नहीं होना, अज्ञान कारकै जीवका नाश होता है, जो कछु जगत् देखता है, सो भ्रममात्र है, अरु इनका बोलना भी ऐसे जान, जैसे बाँसुरीविषे पवनका शब्द होता है, वैसे यह प्राणवायुकर वोलते दृष्ट आते जान, ताते जगत् भ्रममात्र है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सर्वसत्तोपदेशो नाम शताधिकैकोनसप्ततितमः सर्गः ॥ १६९ ॥ शताधिकसप्ततितमः सर्गः १७०. सप्तप्रकारजीवसृष्टिवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! जो जीव हैं, देशदेशविषे मनुष्य देवता नाग किन्नर पशु पक्षी अरु पर्वत कंदरा स्थावर जंगम जेता कछु जगत है, सो सप्त प्रकारकी सृष्टि है, अरु सप्त प्रकारके जीव हैं, तिनको भिन्न भिन्न श्रवण कर, एक स्वप्न जागृत हैं, दूसरे संकल्प जागृत हैं, तीसरे केवल जागृत हैं, अरु चौथे चिर जागृत हैं, पंचम दृढ जागृत हैं, पृष्ठ जागृत स्वप्न हैं, सप्तम क्षीण जागृत हैं। राम उवाच ! हे भगवन् ! तुमने जो यह सप्त प्रकारकी जीवसृष्टि कही है, सो बोधके निमित्त मुझको खोलकर कहौ, यह ऐसे हैं, जैसे नदियोंके जलका समुद्रविषे भेद होवे, अरु इन्होंको पूछना भी ऐसे है, जैसे एक जलते फेन बुद्बुदे तरंग वायुकार होते हैं, सो विस्तार कारकै कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! एक तौ यह, जो किसी जीवको किसी कल्प अपनी जागृतविषे सुषुप्ति हुई, तिसविषे जो स्वप्न हुआ तिस स्वप्नविषे उसको हमारी जागृतका जगत् भासिआया, शब्द अर्थसंयुक्त तिसको सत्य जानकार ग्रहण करने लगा, उसके लेखे हम स्वप्न नर हैं, परंतु उसके निश्चयविषे नहीं, वह अपनी जागृत मानता है, हमारा अरु उसका कल्प एक हो गया है, इसीते वह भी जागृत जानता है, अरु पूर्व कल्पविषे भी उसका शरीर चेतन