पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १४५६) , योगवासिष्ठ । अरु जोतुम स्वप्नकी नई कहौ, तब स्वप्नविषे केवल आकाश होता है, तहां यरलव आदिक कैसे बोलता है । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! स्वप्नविषे जो शरीर होता है, सो आकाशरूप है, तिसविषे कचटतादिक अक्षर कदाचित उद्देश नहीं हुए, जैसे मृतक कदाचित् नहीं बोलता, तैसे आकाशरूप आत्माविषे शब्द कदाचित नहीं हुआ, अरु जी तू कहें, स्वप्नविषे जो यरलवादिक अक्षर प्रवृत्त होते हैं; तिसका उत्तर यह है, जो कछु शब्द वहां सत हुए होते तो निकट बैठेको भी सुनते ॥ हे रामजी । निकट बैठे जगत्को नहीं सुने तौ ऐसे मैं कहता हौं जो आकाश, हुआ कछु नहीं हुआ भासताहै,सोभ्रांतिमात्र है,केवलचिन्मांत्र आकाशका किंचन हैं, सो आकाशविषे आकाशही स्थित है,तैसे यह जगत् भी हुआकछुनहीं। हे रामजी । जैसे चंद्रमाविषे श्यामता है, अरु आकाशविषे वृक्ष होता है, अरु जैसे पत्थरविषे पुतलियाँ नृत्य करतीं भासें सो मिथ्या हैं, तैसे यह जगत्का होना मिथ्याहै॥हे रामजी ! स्वप्नविषे जो जगत् भासताहै, सोचिदाकाशका किंचन हैं,सो किंचन भी आकाशरूप है,इतर कछु नहीं, जैसे स्वप्रका जगत आकाशरूप हैं, तैसे यह जगत् भी आकाशरूप है, जैसे यह जगत् हैं, तैसे वह जगत थे, अरु यह जो आकाश है, सो आत्माकाशविषे अनाकाश है, जैसे स्वपकी सृष्टि भ्रमकरिकै प्रवृत्त भासती है, तैसे जगत् भी भ्रमकारकै प्रत्यक्ष भासता हैं ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जो यह जगत् स्वप्न है, तौ जाग्रत् क्यों भासता है,अरु जो असत् है, तौ सतकी नाई क्यों भासता है। वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी ! एक मृदुसंवेग हैं, एक मध्यसंवेग है, एक तीव्रसंवेग है, संवेग कहिये संकरूपका परिणाम, सो त्रिविध है, जैसे कोऊ पुरुष अपने स्थानविषे बैठा । हुआ मनोराज्य करकै किसी व्यवहारको रचता है,सो तिसको जानता, जो संकल्पमात्र है, अरु जैसे नट स्वांग धारता है, तब वह जानता है, कि मेरा स्वाँग है, अरु न मेरा यह स्वाँग सत्य है,अपने स्वरूपको सत् जानता है, इसका नाम मृदुसंवेग है, काहेते जो अपना स्वरूप नहीं भूला, अरु मध्यसंवेग यह हैं, जैसे किसी पुरुषको स्वम आता है, तिसविषे स्वप्नसृष्टि भासती है, अरु एक शरीर अपना भासता है, तब अपने