पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्याधरीविशोकवर्णन-निर्वाणकरण,उत्तरार्द्ध ६. (१४५५) जैसे स्वप्नसृष्टिका कारण कोऊ नहीं, तैसे इस जाग्रत् जगत्का कारण भी कोऊ नहीं, काहेते जो हुआ कछु नहीं, अरु जो कछु है, सो अनुभवरूप है, ताते यह जगत् अकारण है । हे रामजी! यह जीव साकाररूपी हैं, अरु इनके स्वप्नकी सृष्टि नानाप्रकारकी होती है, सो भी आकाशरूप है, कछु आकार नहीं, अरु जो निराकार अद्वैत आत्मसत्ता है, तिसविषे आदि आभासरूप जगत् फुरा है, सो आकाशरूप क्यों न होवे,साकार क्या अरु निराकार क्या सो सुन, एक चित्त है, एक चैत्य है, चित्त नाम है शुद्ध चिन्मात्रका; अरु चैत्य नाम है दृश्य ऊरनेका; अरु जिस चित्तको दृश्यका संबंध है, तिसका नाम जीव है, जिस चित्तको अज्ञानकारिकै द्वैतका संबंध है, अरु अनात्मविषे आत्माभिमान है, ऐसा जो जीव हैं, सो साकाररूप है, तिसके स्वप्नकी सृष्टि आकाशरूप है। सो अचैत्य चिन्मात्र निराकार सत्ता है, तिसका स्वप्न आभासरूप जगत् आकाशरूप क्यान होवे ॥ हे रामजी ! यह जगत् निरुपादान है, अर्थ यह जो बना कछु नहीं, चिदाकाश निराकाररूप है, जैसे स्वप्नविष जगत् अकृत्रिम होता है, तैसे यह जगत है, न इसको कोऊ निमित्तकारण है, न समवादिकारण हैं, आत्मा अच्युत है, अरु अद्वैत है, सो दृश्यका कारण कैसे कहिये। हे रामजी । न कोऊ कत्त है, न भोक्ता है, न कोऊ जगत है, है अरु नहीं यह भी कहना नहीं बनता,ऐसा जो ज्ञानवान है,सो पाषाणवत मौनस्थित होता है, अरु जब प्रकृत आचार आनि पड़ता है, तब तिसको भी करता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जगदेकताप्रतिपादनं नाम शताधिकळ्यशीतितमः सर्गः ॥ १८२ ॥ शताधिकळ्यशीतितमः सर्गः १८३. विद्याधरीविशोकवर्णनम् ।। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! वह जो तुम्हारे निकट आकाशरूप काँता आई थी, सो अनेक कचटतादिक अक्षर शरीरविना कैसे बोली,