पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५७७

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( १४५८) योगवासिष्ठ । जीवकी अंतवाहक होती हैं, जैसी हमारी हैं। हे रामजी तू देख, वह जगत् क्या रूपहै, किसी कारणते तो नहीं उपजा, जैसे वह जगत् कलनामात्र सत् हो भासता है, तैसे यह जगत् भी जान ॥ हे रामजी! यह जो तेरेताई स्वप्न आता है, तिसविषे जो पुरुष पदार्थ है, सो भी सत् है, काहेते जो ब्रह्मसत्ता सर्वात्मक है । हे रामजी ! प्रबोध हुए भी स्वप्नके पदार्थ विद्यमान भासते हैं, इसीते कहा है कि, स्वप्नसंकल्प ब्रह्म अरु जागृत तुल्य हैं, जैसे आगे उदाहरण कहा है, शुक्रका अरु इंद्र ब्राह्मणके पुत्रका, लवण अरु गाधिका, इनको मनोराज्यभ्रम प्रत्यक्ष हुआ है, आगे कहेंगे, दीर्घतपाको स्वप्न प्रत्यक्ष हुआ है, इसीते कहा है, जो सब तुल्य हैं, अरु जीव जीवप्रति अपनी अपनी सृष्टि है, काहेते जो संकल्प अपना अपना है, ताते सृष्टि भिन्न भिन्न है, अरु सबका अधिष्ठान आत्मसत्ता है, अरु सर्व सृष्टिका प्रतिबिंब आत्मरूपी आदर्शविषे होता है, अरु सर्व । सृष्टि आत्माका अनुभव है, जैसे बीजते वृक्ष उत्पन्न होता है, अरु तिस वृक्षते अपर वृक्ष होते हैं, तौहँ विचारकार देख जो बीज तौ एक था, अरु सब वृक्ष आदि बीजते उपजते हैं, तैसे एक आत्माते अनेक सृष्टि प्रकाशती हैं, परंतु स्वरूपते इतर कछु नहीं, जैसे एक पुरुष सोया है, अरु तिसको स्वप्नकी सृष्टि भासि जाती है, बहुरि स्वप्नविषे जो बहुत जीव भासते हैं, तिसको भी अपने अपने स्वप्नकी सृष्टि भासती है ॥ हे रामजी । जिसते आदि स्वप्नसृष्टि भासती है, सो पुरुष एकही है, तिस एकहीविषे अनंत सृष्टि चित्तके फुरणेकार होती हैं, तैसे आत्मसत्ताके आश्रय अनंत सृष्टि औरती हैं, परंतु स्वरूपते कछु हुआ नहीं, सब आकाशरूप हैं, अरु जीवको अपनी सृष्टि अपनी अज्ञानकारकै भासती हैं ॥ हे रामजी । जीवको अपरकी सृष्टिका ज्ञान नहीं होता, अपनीही सृष्टिको जानते हैं; काहेते जो संकल्प भिन्न भिन्न हैं, एकको हम स्वप्नके नर हैं, अरु एक हमको स्वप्नके नर हैं, वह अपर सृष्टिविधे सोए हैं, अरु हमारी सृष्टि उनको स्वप्नविषे भासती है, तिनको हम स्वप्नके नर हैं, अरु जो हमारी सृष्टिविषे सोए हैं, तिनको स्वप्नविपे अपर सृष्टि भासि आई है, सो इमारे स्वपके नर हैं ॥ हे रामजी । इसप्रकार