पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५७९

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(१४६०) यौगवासिष्ठ । जगविषे पृथ्वी है, तिसके ऊपर समुद्र हैं, तिनकरि पृथ्वी आच्छादित है, तिसकेपरे दूना अपर द्वीप है, तिस द्वीपके परे दूना समुद्र है, इसप्रकार पृथ्वीको लंधि जाता है, तब आगे स्वर्णकी पृथ्वी आतीहै, सोदश सहस्र योजनपर्यंत महासुंदर प्रकाशरूप है, तिसने सूर्यचंद्रमाके प्रकाशको भी लज्जित किया है, तिसके परे अपर लोकालोक पर्वत है, सो सब ठौर प्रसिद्ध है, तिसविषे बहुत नगर बसतेहैं, अरु कहूँ ऐसे स्थानहैं,जहां सदा प्रकाशही रहता है, जैसे ज्ञानीके हृद्यविषे सदा प्रकाश रहता है, अरुकहूँ ऐसे स्थानहैं, जहां सर्वदा अन्धकारही रहता है, जैसे अज्ञानीके हृदयविषे अन्धकार रहता है, कहूँ ऐसे स्थान हैं, जहां प्रत्यक्ष पदार्थ पाते हैं, जैसे पण्डितके हृदयविषे अर्थ प्रत्यक्ष होते हैं, कहूँ ऐसे स्थानहैं, जहां पदार्थ नहीं पाते,जैसे मूर्खके हृदयविषे श्रुतिका अर्थ नहीं होता,कहूँ ऐसे स्थान हैं, जिनके देखनेकार हृदय प्रसन्न होता है, जैसे संतके दर्शनकारि हृदय प्रसन्न होता है, कहूँ ऐसे स्थान हैं, जिनविषे सदा दुःखही रहता है, जैसे अज्ञानीकी संगतिविषे सदा दुःख रहता हैं, कहूं ऐसे स्थान हैं,जहाँसूर्य उदय नहीं होता, कहूँ सूर्य चंद्रमा दोनों उदय होते हैं,कहूँ पशुही रहते हैं, कहूँ मनुष्यही रहते हैं, कहूँ दैत्यहीरहते हैं, कहूँ देवताही रहते हैं,कहूँ जट कृषाणही रहते हैं, कहूँ धर्मका व्यवहार होता है, कहूँ विद्याधरही रहते हैं, कहूँ उन्मत्त हस्ती रहते हैं, कहूँ बडे नंदन बाग हैं, कहूँ ऐसे प्रस्थान हैं, जहां शास्त्रका विचार नहीं, कहूँ शास्त्रके विचारवानरहतेहैं, कहूँ राज्यही करते हैं, कहूँ बड़ी वसतियां हैं, कहूँ उजाड वन हैं,कहूँ पवन चलताहै; कहूँ बड़े खात छिद्र हैं, कहूँ ऊर्ध्व शिखरहैं, तहां विद्याधर देवता रहतेहैं। हैं; कहूं यक्ष राक्षस मत्त रहतेहैं, कहूँ विद्याधरी देवियां महामत्त रहतीहैं, इसप्रकार अनंत देशस्थानकी वस्तियां हैं, तिस लोकालोकके शिखर' ऊपर शत योजनका तलाव है, तिसविषे कमल फूल लगे हैं, अरु सब कल्पवृक्ष हैं, सब पत्थर चिंतामणि हैं, तिसविषे उत्तर दिशा एक स्वर्णकी शिला पड़ी है, तिसके शिखर ऊपर ब्रह्माविष्णु रुद्र आनि बैठते हैं, अरु विलास करते हैं, तिसके ऊपर शिला है, तिसविषे मैं रहतीहौं, अरु मेरा भत्तभी रहता है, संपूर्ण परिवारभी वहां रहता है। हे मुनीश्वर!