पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५८५

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( १४६६) यौगवासिष्ठ । तिसके शिखर देखे, जो महाऊर्वको गये हैं, अरु मैच पडें विचरते हैं। अरु शिखर ऐसे सुंदर हैं, मानौ क्षीरसमुद्रते चंद्रमा निकसा है, ऐसे सुंदर शिखरको हम देखते भए, तहाँ जायकार शिला देखी, कैसी शिला है,जो स्वर्णकी महासुंदर शिलाहै, तिसके निकट इम गये,तब मैंने कहा,हे देवी यहतौ शिला पडी है, तुम्हारी सृष्टि कहाँ है, इसविषे पृथ्वी कहां हैं, दीपकी मर्यादा कहाँ हैं, समुद्र कहाँ हैं, जिनकी आवरण चहुँफेर होता है, अरु तिनके ऊपर दशसहस्रयोजनपर्यंत स्वर्णकी पृर्वी होती है, सों कहां हैं, पर्वत कहां हैं, सप्तलोक कहां हैं, आकाश कहाँ है, दशो दिशा कहां हैं, तारामंडल कहां है, सूर्यचन्द्रमा कहा हैं, जो रात्रि दिनके प्रकाशक हैं, अरु भूतका संचार कहाँ होता है, देवगण कहां हैं, विधाधर सिद्ध गंधर्व कहां हैं, योगीश्वर कहां हैं, वरुण कुबेर कहां हैं, जगतकी उत्पत्ति प्रलयका संचार कहां हैं, पातालकी भूमिका कहां हैं, अरु न्याय करनैहारे मंडलेश्वर कहां हैं, अरु मरुस्थलकी भूमिका कहाँ है, अरु नंदनवनादिक कहां हैं, देवता दैत्यके विरोधसंचार कहाँ है, यह तौ शिला दृष्ट आती है। है रामजी ! आश्चर्यको प्राप्त होकर जब मैंने ऐसे कहा, तब विद्याधरी बोली ॥ हे भगवन् ! तुमको तो प्रत्यक्ष इस शिला विषे अपनी सृष्टि भासती है, जैसे शुद्ध आदर्शविर्षे अपना मुख भासता हैं, तैसे मुझको अपनी सृष्टि भासती है, जैसी मर्यादा देशदेशांतरकी मुझको भासती है, इसका संस्कार पूर्वका मेरे हृदयविषे हैं, इसीते मुझको प्रत्यक्ष भासती है; अरु तुम्हारे हृदयविषे इसका संस्कार नही, इसीते तुमको नहीं भासती, तुम्हारी सृष्टिकी अपेक्षाकरिकै यह शिला पडी है, तुमको शिलाका निश्चय है, इस कारणते तुमको इसविषे जगत् नहीं भासता ॥ हे भगवन् ! जिसका अभ्यास होताहै,सो पदार्थ अवश्य - प्राप्त होता है, अरु सोई भासता है । हे मुनीश्वर ! गुरु शिष्यको उपदेश करता है, जो कुछ इसकी वॉछा होती हैं, सो उपदेशमात्रते इष्टकी प्राप्ति नहीं होती, जब तिसका अभ्यास करै, तब इसकी प्राप्ति होती है ॥ हे मुनीश्वर ! ऐसा शास्त्र को नहीं जो अभ्यास कियेते न पाइये, ऐसा न्याय अरु ऐसी सिद्धता को नहीं जो अभ्यास कियेते न पाइये,