पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६२२

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पुरुषप्रतिविचारवर्णन-निवणकरण, उत्तरार्द्ध ६.१ १५०३) है, सो अद्वैतविषे चैत्यता कैसे हुई है, अरु चेतनेवाला कौन हुआ, प्रलयके अनंतर काली क्योंकार भासी । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! न कोङ चेतन है, न कोङ चैत्यता है, केवल आत्मसत्ता अपने आपविधे स्थित है, चेतनधन है, परम निर्मल है, अरु शतरूप है, अरु शिवतत्त्व भी उसीको कहते हैं, वही शिवतत्त्व रुद्र आकारको धारे हुएरद्दष्ट आया है, दूसरा कछु नहीं, केवल परम चिदाकाश है, सोई चिदाकाश आकार हो भासता है, अरु आकार कछु हुआ नहीं, न भैरव है, न भैरवी है, न काली है, न यह जगत् हैं, सब मायामात्र है, जैसे स्वप्नविष आत्मसत्ता चैत्यताकारकै जगतरूप हो भासती है, स्वरूपते न कछु चैत्यता, है, न जगत है, आत्मसत्ताही अपने आपविषे स्थित है, तैसे यह जगत् भी जान, कछु अपर हुआ नहीं अद्वैतसत्ताही है, तिसविर्ष चैत्य अरु चेतनेहारे मैं तुझको क्या कहौं, सब वृत्तिकारकै भासते हैं, आत्माविषे कछु इनका उपजना नहीं भया, केवल स्वच्छ चिदाकाश है, हमको तौ सदा वही स्वरूप भासता है, अज्ञानीको नानाप्रकारका जगव भासता है, अरु आत्मा सदा एकरस है, चिंतन कारकै तिसविषे आकार भासते हैं, भैरव अरु काली सब निराकार हैं, भ्रांतिकारिकै आकार भासते हैं, जैसे मनोराज्यविषे युद्ध भासते हैं, जैसे कथाके अर्थ भासते हैं, सो अनहोते संकल्प विलासते हैं, तैसे चिदात्माविषे यह जगत भासता है, जैसे आकाशविषे तरुवरे भासते हैं, तैसे यह आकार भासते हैं ।। हे। रामजी ! यह जो जगदिग्प्रलय महाप्रलयका शब्द हैं, तिनका नाश करनेअर्थ तुझको कहता हौं, आत्मा एक अद्वैत चेतन हैं, सो चेतनताका अभाव कबहूँ नहीं, अपने आपविषे स्थित हैं, अरु किंचन है, जैसे सूर्यको किरणे किंचनरूप होती हैं, इनविषे जल भासता है, तैसे चैतन्यका किंचन जगत भासता है, सोई महाप्रलयविषे रुद्र अरु भैरवी हो भासती है, न कछु रुद्र है न कालीहै, सर्व आत्माही है । हे रामजी ! जो कछु कहना सुनना होता है, वाच्य वाचककार कहता है, आत्माविषे कहना अरु सुनना कछु नहीं, वही चिदाकाश संकल्पकारकै रुद्र नृत्य करता है, जैसे स्वर्ण भूषण होकार भासता है, तैसे चिदाकाश