पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६३५

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( १५१६ ) योगवासिष्ठ । तैसे मैं ओंकारका उच्चार किया, कैसा ओं है, आदि मध्य अंतते रहित पर ब्रह्म है, सर्व ब्रह्मांडरूपी तरंगका आधार समुद्र है ॥ हे रामजी ! जब मैं अधिभूत दृष्टिकारे देखौं, तब मुझको शिलाही भासे, अरु जब अंतवाहक दृष्टिकार देखौं,तब अनंतब्रह्मांड दृष्ट आवै,अरुनानाप्रकारकी क्रिया मर्यादासहित भार्से, अरु आत्मत्वदृष्टिकार देखौं, अद्वैतअपना आपही भासै ॥ हे रामजी ! जैसे सूर्यको किरणों विषे मरुस्थलकी नदी भासती है, तैसे मुझको सृष्टि भासै, जैसे मरुस्थलकी नदी मिथ्या है, तैसे ग्रहण करनेहारी वृत्ति मिथ्या है,जैसे संवेदनविषे सनन फुरता, सोभीमिथ्या है, काहेते जो नदी मिथ्या है, तौ मनन तिसका सत्य कैसे होवे,जैसे वह मिथ्या है, तैसे यह भी रूप अवलोकन मनुष्यका मिथ्या हैं। भ्रांतिकारकै सत्य भासती हैं,जैसे स्वप्नसृष्टि भ्रांतिमात्र है, जैसे संकल्प पुरी मिथ्या है, जैसे मनोराज्यका नगर अरु कथाका वृत्तांत अणहोता भ्रांतिकारकै प्रत्यक्ष भासता है, तैसे यह जगत् भ्रांतिकारकै सत्य भासता है, वास्तव कछु नहीं, संकल्प विलासविषे बने दृष्टि आते हैं । हे रामजी । जिसप्रकार मुझको सृष्टि भासी है सो सुन, जब मेरेविषे पृथ्वी धारणा भई, तब पृथ्वी मुझको शरीर होकर भासने लगी, काहेते जो मैं विराट् आत्मा था, तिस पृथ्वीके ऊपर वन, पर्वत, नदी, समुद्र, वृक्ष, फूल, फल, मनुष्य, पशु, पक्षी, देवता, ऋषीश्वर, दैत्य,नाग आदिक जो स्थित हैं, सो पृथ्वी मेरा शरीर भया, अरु पर्वत मेरे सुख भए, अरु सुमेरु आदि पर्वत मेरी भुजा भई, अरु सप्त समुद्र मेरा आद्रा भया, अरु सर्व नदी मेरे कंठविषे माला भासे, अरु वन मेरी रोमावली भई, अरु मरुस्थलकी नदी मेरे ऊपर विस्तार भासै, अरु देक्ता मनुष्य पशु पक्षी दैत्य यह सब मेरेविषे कीट भासे, शरीरविषे जुआ लीखां आदिक हैं, अरु किसी ठौर मेरे ऊपर हिलावते हैं, अरु बीज बोते हैं, खेती उगती हैं, प्राणी खाते हैं, कहूँ खोदते हैं, कहूँ पूजा करते हैं, कहूँ समुद्र स्थित हैं, कहूं नदी चलती है, कहूँ राजा राज्य करते हैं, मेरे ऊपर झगड मरते हैं, वह कहता है पृथ्वी मेरी है, वह कहता हैं मेरी है, इसप्रकार ममताकारकै युद्ध करते हैं, इस्ती चेष्टा करते