पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६९२

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जागृत्वमैकताप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५७३) जब चेतनता फुरती है, तब सो वेदन होती है, तिसविषे शब्दतन्मात्र होती है, शब्दतन्मात्रते आकाश उत्पन्न होता है, बहुरि स्पर्शकी इच्छा होती हैं तब वायु उपजती है, जब आकाशविषे उत्थान हुआ, तब तिस वायु अरु आकाशके संघर्षण भावते अग्नि उपजता है, जब अग्निविषे उष्णस्वभाव होता है, तब जल उत्पन्न होता है, अर्थ यह कि जब तेजकी अधिकता होती है, तब जल उत्पन्न होता हैं, स्वेदवत् जब जल बहुत इकट्ठा होता है,तब तिसते पृथ्वी उत्पन्न होती है,इसप्रकार आकाश वायुते जल पृथ्वी उत्पन्न होते हैं, तब तत्त्वते शरीर उपजते हैं, स्थावर जंगमभूत नानाप्रकार जगत् दृष्ट आता है, सो पांचभौतिक है, अरु वास्तवते न पंचभूत हैं, न कोङ उपजता है, न नष्ट होता है, केवल आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, जैसे स्वप्नविषे नानाप्रकारका जगत् आरंभ परिणामसहित भासता है, परंतु वास्तव कछु उपजा नहीं, आत्मसत्ताही चित्तके ऊरणेकार जगतरूप हो भासती है, तैसे यह जागृत् जगत् भी जान ।। हे रामजी! यह जगत् सब अपना अनुभवरूप है, भ्रमकरिकै आकारसहित भासता है, जब भली प्रकार करके विचार देखिये तब जगतभ्रम मिटि जाता है, केवल चेतन आत्मत्वमात्र शेष रहता है, जैसे निद्रादोष कारकै स्वप्नविष नानाप्रकारके क्षोभ भासते हैं, जब जागता है तब एक अपना आपही भासता है, तैसे आत्मसत्ताविषे जागेते अद्वैतही अद्वैत भान होता हैं ॥ है रामजी 1 जो बोधसमय द्वैत कछु। न भासै तौ अबोध समय भी जानिये कि, द्वैत कछु नहीं हुआ, अरु जो बोधसमय सत्य भासै तौ जानिये कि, सर्वदा काल यही सत्त है ॥ हे रामजी ! यह निश्चय धार कि, अपर जगत् कछु वस्तु नहीं, जैसे आकाशविषे नीलता भासती है, जैसे किरणोंविषे जल भासता है, जैसे जेवरीविषे सर्प भासता है, तैसे आत्माविषे जगत् भासता है, विचार कियेते कछु नहीं पाता ॥ हे रामजी । अपनी कल्पनाही इसको जगतरूप हो भासती है, अपर कछु नहीं, जैसे स्वप्नसृष्टि अपनी कल्पनारूप है, परंतु निद्रादोषकार भिन्न हो भासती है, तिसविषे रागद्वेष उपजता है, अरु जागेते सब क्षोभ मिटि जाते