पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७०९

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( १५९० ) योगवासिष्ठ । आत्मा है, जो चेतन आकाश है, तिसविषे अनंत जगत् उत्पन्न होते हैं, अरु लीन हो जाते हैं, तिसको जो शून्य कहते हैं, सो महामूर्ख हैं, जो सर्वका अधिष्ठान है, अरु सर्वको धारि रहा है, अरु सदा निःसंग है, सो ऐसे चिदाकाशको नमस्कार है । हे राजन् | यह आश्चर्य है, जो सदा एकरस है, तिसविषे नानातरंग भासते हैं, यही माया है। हे राजन् । एक विद्याधर अरु विद्याधरीथे, तिनके मंदिरविषे एक ऋषि आय निकसा, तिसका विद्याधरने आदरभाव न किया, तबऋषीश्वरने शाप दिया कि, तू द्वादश वर्षपर्यंत वृक्ष होवैगा, तब वह विद्याधर वृक्ष होगया, अब जो हम आये हैं। हमारे देखतेही वह शापते मुक्त हुआ, वृक्षभावको त्यागिकार बहुरि विद्याधर हुआ है, यह ईश्वरकी माया है, कबहूँ कछु हो जाता है,कबहूँ कछु हो जाता है । हे मेघ! तू धन्य है, तेरी चेष्टा भी सुंदर है, अरु तीर्थविषे सदा तेरा स्नान होता है, तू सबते ऊंचे विराजता है, सब अचार तेरा भला दृष्ट अता है, परंतु एक तेरेविषे नीचता है, जो गडेकी वर्षा करता हैं, तिसकरि खेतियां नष्ट हो जाती हैं, बहुरि उगतीं नहीं, तैसे अज्ञानकी चेष्टा देखने मात्र सुंदर है, अरु अंतरते मूर्ख है, तिनकी संगति बुरी है, अरु ज्ञानवानकी चेष्टा देखने मात्र भली नहीं तौ भी उनकी संगति कल्याण करती है । हे राजन् ! सबते नीच श्वान है, काहेते कि, जो कोई तिसके निकट आता है, तिसको काटता है, अरु घरघरविषे भटकता फिरता है, अरु मलीन स्थानोंविषे जाता है, तैसे अज्ञानी जीव श्रेष्ठ पुरुषकी निंदा करता है, अरु मनविषे तृष्णा रहती है, अरु विषयरूपी मलीन स्थानोंविषे गिरते हैं, सो मूर्ख मनुष्य मानौ श्वान हैं, अरु श्वान नीचते नीच है, जो ब्रह्माने संपूर्ण जगत्को रचा है, शुभ भी अरु अशुभ भी तिसविषे श्वान नीच है, सो श्वान क्या समझा है? एक पुरुष श्वानसों प्रश्न करता भया ॥ हे श्वान! तुझते कोई नीच है। अथवा नहीं, तब श्वानने कहा, मुझते नीच मूर्ख मनुष्य हैं, उनते मैं श्रेष्ठ हौं, प्रथम तौमैं शूरमा हौं, अरु , जिसका भोजन खाता हौं तिसकी रक्षा करता हौं, अरु उसके द्वारे बैठा रहता हौं, अरु मुर्खते यह तीनों कार्य नहीं होते तोते मैं उसते श्रेष्ठ हौं, काहेते कि, मूर्खको देहाभिमान