पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७१६

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जीवन्मुक्तलक्षणवर्णन–निर्वाणकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५९७) है,गिरता कदाचित् नहीं,परम उदितरूप होताहै,रागसहित दृष्ट भी आता है, परंतु अंतरते राग किसीविषे नहीं, क्रोध करता भी दृष्ट आता है, परंतु उसको क्रोध कदाचित् नहीं, जैसे आकाश शुभ पदार्थको धारता है, धूम अरु बादलकार आच्छादित भी दृष्ट आता है, परंतु किसीसाथ स्पर्श नहीं करता, तैसे ज्ञानविषे सब क्रिया दृष्ट आती हैं, परंतु अपने निश्चयविषे किसीसाथ स्पर्श नहीं करता, जैसे नटवा स्वाँग लेआता है, चेष्टा करता देखना है, अरु अंतरते अपने नटत्वभावविषे निश्चय होता है, तैसे ज्ञानबान्को भी सर्व क्रियाविषे अपना आत्मभाव निश्चय होता है, जैसे जिनको स्वप्न आता है, अरु स्वप्नविषे अपना पूर्वरूप स्मरण आता है, तब स्वप्नके पदार्थविषे वर्त्तता है, तो भी उनके सुखविषे आपको सुखी नहीं मानता अरु दुःखविषे आपको दुःखी नहीं मानता, सब सृष्टि उसको अपना स्वरूप भासती है, तैसे ज्ञानवान्को अपने स्वरूपके निश्चय कारकै सुख दुःखका क्षोभ नहीं होता, अरु जो ऐसे पुरुष हैं। तिनको क्या दुःखसाथ होता है, जैसे उनकी इच्छा होती हैं, तैसेही सिद्ध होकार भासती है । हे रामजी! यह जेती सृष्टि हैं, सो सब चित्सत्ताविषे हैं, जो योगीश्वर पुरुष तिसविषे स्थित होकर जहां प्राप्त हुआ चाहते हैं, तहाँ अंतवाहकसाथ जाय प्राप्त होते हैं,अरु तीनों काल उनको विद्यमान होते हैं, वह साधन कछु नहीं, परंतु ज्ञानी अवश्यकरि किसनिमित्त यत्न नहीं करता, जैसा आनि प्राप्त होता है तिसविषे प्रसन्न रहता है । हे रामजी। एक कालमें ब्रह्माजी सामवेदको ऊर्ध्वमुख करके गायन करते थे, अरु सदाशिवको मान न किया, अपमान किया, तब सदाशिवने अपने नखसे ब्रह्माके पेच शीश काटि डारे, परंतु ब्रह्माजीके मनविषे कछु क्रोधन फुरा,अरु विचारत भया कि, मैं तब भी चिदाकाश था, अब भी चिदाकाश हौं, मेरा तौकछु गया नहीं, शिरसे मेरा क्या प्रयोजन है, न कछु हानि है, न कछु लाभ है । हे रामजी ! इसप्रकार सर्व विश्व रचनेहारे ब्रह्माजीका शिर काटा, जो बहुरि भी शिर लगाइ लेता तौ समर्थ था, परंतु उसको लगानेका कछु प्रयोजन न था, न लगानेविषे कछु हानि थी, उसका भी निश्चय सदा आत्मपदविषे है, इस कार