पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७४७

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(१६२८) योगवासिष्ठ । मैं अर्थरूप जान ग्रहण किया, तिसका संस्कार हो गया, आत्मसत्ताके आश्रय जैसे संवेदन फुरती गई, तैसे होकार भासने लगा, उसका स्वप्न मुझको जागृत होकर भासने लगा, जैसे एक दर्पणविषे दो प्रतिबिंब भालें तैसे एक अनुभवविषे दो सृष्टि भासने लगीं, तब मैंने विचार किया कि सृष्टि संकल्परूप है, संकल्प जीवका अपना अपना है, अरु अपने संकल्पकी 'भिन्न भिन्न सृष्टि है, अरु अनुभवके आश्रय जैसा जैसा संकल्प फुरता है, तैसी होष्टि भासती है, सृष्टिका कारण अपर कोऊ नहीं ॥ हे वधिक ! अष्ट निमेषपर्यंत सुझको दो सृष्टि भासती रहीं, बहुरि मैं उसके चित्तकी वृत्ति अरु अपने चित्तकी वृत्तिइकट्ठी करि मिलाई, तब दोनों तद्रूप हो गये जैसे जले अरु दूध मिलिकरि एक रूप हो जाता है, तैसे दोनों चित्त मिलिकरि एक हो गये, तब दूसरी सृष्टिका अभाव हो गया, जैसे भ्रमदृष्टिकरि आकाशविषे दो चंद्रमा भासते हैं, भ्रमके गयेते दूसरे चंद्रमाका भाव अभाव हो जाता है, तैसे द्वितीया वृत्तिके अभाव हुए दूसरी सृष्टिका अभाव हो गया, एक इसीकी सृष्टि भासने लगती है, नानाप्रकारके व्यवहार होते दृष्ट आवें, चंद्रमा, सूर्य, पृथ्वी, दीप, समुद्र स्पष्ट भासने लगे, केते कालते उपरांत तिसके चित्तकी वृत्ति सुषुप्तिकी ओर आय स्वप्नसृष्टिका विस्तार लीन होने लगा, जैसे संध्याके समय सूर्यको किरणें सूर्यं विषे लय होती जाती हैं, जब सृष्टि चित्तविषे लय होने लगी, तब स्वप्नविषे मिटि गई, सुषुप्ति अवस्था हुई, सर्व इंद्रियाँ स्थिर हो गईं ॥ हे वधिक । सुषुप्ति जो होती है, जब अन्न भोजन करता है तब वह समवाही नाडीके ऊपर आनि स्थित होता है, जागृतवाली ठहर जातीहै, तिसकार प्राण भी ठहर जाते हैं, तब मन भी ठहर जाता है, तिसका नाम सुषुप्ति होता है, जब मन बहुरि ऊरता है, तब जागृत होता है ॥ राम उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! जब मन प्राणोंहीकार चलता है, तब मनका अपना रूप तौ कहूँ न हुआ क्यों । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! परमार्थते कहियेतौ देह भी नहीं तौ मन क्या है, जैसे स्वप्नविषे पहाड भासते हैं, तैसे यह शरीर भासता हैं, काहेते कि सबका आदि कारण कोऊनहीं, ताते जगत मिथ्या भ्रम है, केवल ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, जो तत्त्ववेत्ता हैं।