पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७४६

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हृदयान्तरस्वममहाप्रलयवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६२७) कल्पना है, सर्व कल्पनाते रहित चित्सत्ता मैं देखत भया, अरु जो तू कहै, सुषुप्ति निर्विकल्प तुझने कैसी देखी तिसका उत्तर यह है ॥ हे वधिक! अनुभव ज्ञानरूप आत्मसत्ता सर्वदा कालविषे ज्योंकी त्यों है, तिसविषे जैसा आभास फ़रता है, तैसा ज्ञान होता है, यह जो तुम भी दिन दिन प्रति देखते हो, सुषुप्तिते उठिकारे जानते हौ, कि मैं सुखसों सोया था, सो अनुभव कारकै देख, तैसे मैं भी वह देखता भया, यहाँ चित्त संकल्प कोऊ नहीं ऊरता, निर्विकल्प है, परंतु कैसा निर्विकल्प है, जो सम्यक् बोधते रहित है, तिस अभाव वृत्तिका नाम सुषुप्ति है, अरु बहुरि सुझको तुरीया देखनेकी इच्छा भई, सो तुरीया देखनी महा कठिन है, तुरीया नाम है साक्षीभूत वृत्तिको सो सम्यक् ज्ञानते उत्पन्न होती हैं, सो जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति अवस्थाकी साक्षीभूत अवस्था है, अरु सुषुप्तिको नाई है, जैसे सुषुप्तिविषे अहं त्वं आदिक कल्पना कोऊ नहीं, तैसे तुरीयाविषे भी नहीं, ब्रह्मका सम्यक बोध होता है, अरु सुषुप्ति जडीभूत तमरूप अविद्या होती है, तुरीयाविषे जडता नहीं होती, सो सुषुप्ति अरु तुरीयाविषे एताही भेद होता है, सच्चिदानंद साक्षीवृत्ति होती है, सम्यक्बोधका नाम तुरीयापद है, अपर तुरीया इसके भिन्न कोऊ नहीं ऐसे निश्चयकार मैं तिसको देखता भया ॥ हे वधिक ! चारौं अवस्था में भिन्न भिन्न देखता भया, अरु माया जो है फुरणा, तिससहित मैं देखता भया अरु आत्मसत्ता अपने आपविष स्थित हैं, तिसविषे न कोऊ जाग्रत है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, न तुरीया है। इनका भेद तहाँ कहूँ नहीं, आत्मसत्ता सदा अद्वैत है, अरु यह चारौं चित्तसंवेदनविषे होती हैं ॥ हे वधिक । ऐसे अनुभव कारकै बाहर आया, बाहर भी मुझको भासने लगा, तब मैं कहा, यही जगत् मुझको उससे अंतर भासा था, बाहर कैसे आया तब मैं बहुरि उसके अंतर प्रवेश किया, प्रथम जो उसके अंतर प्रवेश किया था अरु तिसके अंतर सृष्टि देखी थी, तब उसकी संवेदन अरु मेरी संवेदन मिल गई थी, जब मैं अपनी संवेदन उसते भिन्न करी तब ब्रह्मांड भासने लगा, एक उसकी संवेदन फुरणेको अरु एक मेरी संवेदनविषे भासने लगा, काहेते कि प्रथम उसकी सृष्टिको देखकर