पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८२४

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जाग्रत्त्वप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७०५) भावको प्राप्त भई, अरु जागृत ज्ञागृतरूप हुई तौ हे रामजी! स्वप्न तौ कोऊ न हुआ, इसको सर्व ठौर जाग्रत् क्यों हुई, अरु जागृत् तो कोऊन हुई काहेते कि जब जागृते स्वप्नविषे गया, तब स्वप्न जाग्ररूप होगया, अरु जाग्रत् स्वप्न होगई, अरु जब स्वभते जाग्रविषे आया, तब जाग्रत जाग्रतरूप होगई, अरु जब स्वप्न जाग्रत स्वरूप होगई, तो क्या हुआ जयत सोऊ नहीं, संबे स्वप्न असत्रूप है, अपने कालविणे यैहे जाग्रत है अरु है स्वप्नरूप, अरु जब यहांते मृतक होता है, तब यह जगतु स्वप्नरूप होता है, स्वरूप परलोक जाग्रत होता है, जाग्रतस्मृति प्रत्यक्ष होजाती है, तो उसविषे वह नहीं रहता, अरु उसविषे वह नहीं रहता, असे जागृत स्वप्न दोनोंविंषे परलोक नहीं रहता, अरु इस जाग्रतेविषे देखिये तौ स्वप्न अरु परलोक दोनों नहीं भासते, अरु स्वप्रविषे इस जाग्रत् अरु परलोक दोनोंका अभाव हो जाता है, तो क्या सिद्ध हुआ, यह सिद्ध हुआ कि सब स्वममात्र है । हे रामजी । चिरंकालकी प्रतीतिको जाग्रत कहते हैं, अरुअल्पकालकीप्रतीतिको स्वप्न कहते हैं, जो आदि स्वप्न हुआ, अरु तिसविर्षे हृढ अभ्यास होगया, हिंसकार जाग्रत होभासंती है, ताते जो कछु आकार तुझको सत् भासते हैं, सो सब निराकार आकाशरूप हैं, कछु बना नहीं, जैसे स्वविवे त्रिलोकी जगत्भ्रम उदय होता है,परंतु सब आकाशरूप होता है, तैसे यह जगत्के पदार्थ अविद्याकार साकार भासते हैं,सो सब निराकार आकाशरूप हैं,जब अधिष्ठान आत्मतत्त्वविषे जागैगा, तब सबही आकाशरूप भासैगा, अरु अद्वैत आत्मतत्त्वविषे जो ग्राह्यशाहकभाव भासते हैं, सो मिथ्या कल्पना है, वास्तवते कछु नहीं सब जगत् मृगतृष्णाकेजलंवत् मिथ्या है,तिसविषे ग्रहण क्या करिये, अरु त्याग क्या करिये, इन दोनों की कल्पनाको दूर करु, यह होवे, यह न होवै, यह कल्पनाको त्यागिकार अपने त्वरूपविषे स्थित होहु, तब सर्व शांति प्राप्त होवै ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जाग्रतुस्वप्नप्रतिपादनं नाम द्विशताधिकैकोनपंचाशत्तमः सर्गः ॥ २४९ ॥