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( १७४० ) योगवासिष्ठ ।। है, परंतु हुआ कछु नहीं, सब भ्रांतिमात्र है, तैसे यह जगत् भ्रममात्र जान ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे परमार्थगीतवर्णनं नाम द्विशताधिकैकोनषष्टितमः सर्गः ॥२५९॥ । द्विशताधिकषष्टित्तमः सर्गः २६०. ब्रह्माण्डोपाख्यानवर्णनम् । राम उवाच ।। हे भगवन् ! जगत् तौ अनेक अरु असंख्यरूप हुयेहैं, अरु आगे होवेंगे,तिन जगत्की कथा कारि मेरे ताई तुमने क्यों न उपदेश कर जगाया ॥वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी ! यह जो जगतकेजालसमूहहैं,तिनविषे जो पदार्थ हैं,सो सब शब्दअर्थते रहित,जो शब्दअर्थतेरहितहुये तौ कछु क्यों न हुये ताते वही व्यर्थ कहनेका प्रयोजन क्या । हे रामजी ! जब तू विदितवेद निर्मल त्रिकालदर्शी होवैगा, तब इस जगत्को तू जानैगा, अरु मैं आगे भी तुझको बहुतबार कहा है, वारंवार वही वर्णन करना इसविषे पुनरुक्ति कहिये, बहुरि कहना दूषण होता है, परंतु ससुझानेके निमित्त कहा है, जैसे एक सृष्टिको जाना, तैसे संपूर्ण सृष्टिको जाना, जैसे एक मुष्टि अन्नके समूहसों भरिकै देखी तौजानि लिया,सब ऐसेही हैं, जैसे एक सृष्टिको यथार्थ जाना तैसे अपर सृष्टिको भी जानि लिया ॥ हे रामजी ! जेता कछु जगत् है, सो किसी कारणकार नहीं उत्पन्न भया, कारणविना पदार्थ जिसविष भासा सो जानिये वही रूप है, अरु सृष्टिके आदि भी वही सत्ता थी, अरु अंत भी वही होगी, मध्यविषे जो कछु भासा सो भी वहीरूप जानिये, जैसे स्वप्नके आदि। भी अपना अनुभव निर्मल होता है, स्वप्नके निवृत्त किये भी वही रहता है, स्वप्नके मध्य जो पदार्थ भासा, ऐसा भी वही जानिये, अपर वस्तु कछु नहीं, अनुभवसत्ताही इसप्रकार हो भासती है, जब तू विदितवेद होवैगा, तब सर्व जगत् तुझको अपना आप भासैग ॥ हे रामजी ! एक एक अणुविषे अनेक सृष्टि हैं, सो ' आकाशरूप हैं, कछु हुई नहीं,