पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८९०

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१ सर्वब्रह्मप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७७१) तुम्हारे पास यह बैठा है, अब इसते पूछिये कि स्वरूपकी प्राप्ति हुई है। अथवा नहीं हुई, तुम इसकी अवस्था पूछडु ॥ वाल्मीकि उवाच ॥ हे भारद्वाज | जब इसप्रकार रामजीने कहा, तब वसिष्ठजीमुनिविषेशार्दूल है, सो तिसकी ओर कृपादृष्टि कारकै बोलत भये ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे ब्राह्मण ! यह मोक्षउपाय जो मैं संपूर्ण कहा है,तिसको सुनकर तू क्या जानत भया है ॥ कुंददंत उवाच ॥ हे सर्वसंशयके छेदनेहारे । जो कछु मुझको संशयरूपी तम आवरण था, सो सब नष्ट होगया है, तुम्हारे वचनरूपी प्रकाशकार अज्ञानरूपी अंधकारका नाश भया है, अरु जो कछु जाननेयोग्य पद है, सो मैंने जाना है, जो कछु पानेयोग्य था, सो मैं पाया है, अब मैं अपने स्वभावविषे स्थित भया हौं, अब मुझको कल्पना कोई नहीं रही, मैं अनंत आत्मा हौं, नित्य शुद्ध अच्युत हौं, परमानंदस्वरूप हौं, सर्व जगत् हमाराही स्वरूप है ॥ हे भगवन् ! अंतःपुरीविषे जो एती सृष्टि समानेका संशय था, सो तुम्हारे वचनकार दूर भया है, अरु एक एक राईविषे मुझको ब्रह्मांड भासते हैं, अरु आत्मत्त्वभावकारिके दिखाई देते हैं, जैसे अनेक दुर्पणविर्षे अपना मुखही भासता है, तैसे मुझको सर्व ओरते अपना अपविषे भासता है । हे भगवन् । तुम्हारे वचन मैं आदिते लेकर अंतपर्यंत संपूर्ण श्रवण किये हैं, कैसे वचन तुमने कहे हैं, परम पावन हैं, अरु सारते परम सार हैं, आत्मबोधका कारण हैं, तिनके विचारे मेरी भ्रांति निवृत्त हो गई है, अरु अपने आपविषे स्थित भया हौ । इति श्रोयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे कुंददंतविश्रामप्राप्तिर्नाम द्विशताधिकाष्टषष्टितमः सर्गः ॥ २६८ ॥ द्विशताधिकैकोनसप्ततितमः सर्गः २६९. सर्वब्रह्मप्रतिपादनम् । । वाल्मीकि उवाच ॥ जब इसप्रकार कुंददैतने कहा, तब वसिष्ठजी युनिकर पम इचित वचन परम पद पानेका कारण बहुरि कहत भये ॥