पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९११

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(१७९२) योगवासिष्ठ । उवाच ॥ हे भगवन् ! जो एक है तौ अहं त्वं आदिक कलना कहाँते आई है, भोक्ताकी नई भोक्ता है, जो निर्मल है, तौ यह कैसे दृढता हुई है ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! ज्ञेय जो है दृश्यसत्ता, तिसका जानना तिसको बंधन नहीं, काहेते कि ज्ञानही सर्व अर्थरूप होकार स्थित भया; तौ बंध अरु मोक्ष किसको हो ? ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! ज्ञप्ति जो बाह्य अर्थको देखती है, जैसे आकाशविषे नीलता अरु स्वप्नविषे पदार्थ सो असरूप सत् हो भासते हैं, तैसे यह बाह्य अर्थ असही सत् हो भासते हैं । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! कारणते रहित जो बाह्य अर्थ सव भी भासते हैं,सो भ्रममात्र हैं, इतर कछु नहीं ॥राम उवाच॥हे भगवन् ! स्वप्नकालविषे स्वप्नके पदार्थका दुःख होता है, सत् होवे, अथवा असत् होवे, तैसे यह जगतविष सत् असत्का दुःख होता है, परंतु इसके निवृत्तिका उपाय कहौ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जो इसप्रकार हैं, जगत् स्वप्नकी नई तौ जो कछु पिंडाकार भासता है, सो सब भ्रममात्र करिकै भासता है, सर्वं अर्थ शतरूप है, नानात्व कछु नहीं ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! स्वप्न अरु जाग्रतविष पिंडाकार पर अपर रूप है, कैसे उत्पन्न होता है, अरु कैसे शांत होता हैं । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । पूर्व अपरका विचार करिये, जो जगत आदिविषे क्या रूप था,अरु अंतविषे क्या रूप होता है, जब ऐसे विचार होवैगा, तब शांति होजावेगी, जैसे स्वप्नविषे स्थूल पदार्थ पिंडरूप भासते हैं, सो सब आकाशरूप हैं, तैसे जाग्रत पदार्थ भी आकाशरूप हैं ॥ राम उवाच ॥ है भगवन् । भिन्न भावकी भावना प्राप्त होती है, तब जगत्को कैसे देखता है, अरु संस्कार कुहिड भ्रम शति कैसे होता है ? ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जो निर्वासी पुरुष हैं, तिसको जगत्का भाव सदैव उठि जाता है, जैसे संकल्पनगर, जैसे कागजकी मूर्ति असत् भासते हैं, तैसे उसको जगत् असत् भासता है ॥राम उवाच ।। हे भगवन् ! वासनाते रहित पिंडभाव शांत हुये जगत्को स्वप्नवत् जानता है, तिसते उपरांत क्या अवस्था होती है॥वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी ! जगत्को जब संकल्परूप जानता है, तब वासना निर्वाण होती है, होचतत्वका क्रम उपजना विनशनालीन हो जाता हैं, प्रमतत्त्व