पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९४७

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( १८२८) योगवासिष्ठ । कंछु जगत् तुझको भासता है, सो सब ब्रह्मरूप है, सदा अपने आपविष स्थित है, जब तिसविषे चित्त ऐसे फुरता है, तब वही चित्त संवेदन जगदूप हो भासता है, ताते जो कछु आकार भासते हैं, सो सब चिन्मात्र रूप हैं, न कोऊ कार्य न कारण है अरु जो तू प्रत्यक्षप्रमाणकर संशय करै। कि जो सब चिन्मात्ररूप हैं, तो यह शरीर जब मृतक हो जाता है, तब चेतता क्यों नहीं चाहिये, जो तिस कालमें भी इसविषे जानना होवे, तौ ।। हे राजन् ! जब जाग्रतका अंत होता अझ स्वप्न आया नहीं, तब शुद्ध चिन्मात्र रहता है, जब तिसविषे स्वप्नसृष्टि भासि आती है, तिस सृष्टिविघे कई चेतन भासते हैं, कई मृतक, कई जड भासते हैं, स्थावर जंगम नानाप्रकारको सृष्टि भासती है, परंतु अपर तौ कछु नहीं, वही चिन्मात्रस्वरूप है, वही अनुभवरूप हो भासती हैं, कहूँ चेतन बोलते चालते भासते हैं, परंतु वही है, जो चेतनता न होती तौ भासते कैसे जाते, भासते हैं, ताते सब चेतन हैं, तैसे इस जगविषे कहूँ बोलते चालते भासते हैं, कहूँ शव भासते हैं, परंतु वही चिन्मात्रसत्ता है, जैसा जैसा संकल्प तिसविषे फुरता है, तैसा तैसा हो भासता है । हे राजन् । जैसे प्रथम प्रलयते सृष्टि उत्पन्न भई थी, तैसे उत्पत्ति होती है, यह सृष्टि किसीका कार्य नहीं, अरु किसीका कारण भी नहीं, विनाकारणउपजी भासती है ॥ हे राजन् ! जो महाप्रलयविषे शेष रहता था सो चिन्मात्र, है, तिस चिन्मात्रसत्तासों जो प्रथम शुद्ध संवेदन फुरी है, सो ब्रह्मा विरारूप होकार स्थित भई, तिसने जगत्कल्पना करी हैं, तिसवित्रे नेति रची है, कि यह पदार्थ इसप्रकार है, तैसे चित् संवेदनविषे दृढ होकार भासा है, तिसका नाम जगत है, वही आत्मसत्ता किंचनरूप होकार जगतरूप हो भासती है ॥ हे राजन् । जैसे तेरे संकल्पकी आदि अरु स्वप्नसृष्टिकी आदि शुद्ध आत्मसत्ता थी, वही ऊरणेकारकै पदार्थरूप हो भासती है, तैसे यह जान, पर न कोऊ कार्य है, न कोऊ कारण है, जैसे स्वप्नसृष्टि अकारण होती है, तैसे यह जगत् अकारण है, जो आदि अंतते विचारके रहित है, अरु वर्तमान प्रत्यक्षप्रमाणको मानते