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वसिष्ठेश्वरसंवादे चैतन्योन्मुखत्वविचारवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

हरिणोंविषे हरिणी होती है, विद्याधरी, गंधर्वी, देवताविषे देवी इत्यादिक जो रूप धारती है, सो चैत्योन्मुखत्व जीवकलारूप धारती है क्षीरसमुद्रविषे विष्णुरूप होकरि स्थित होती है, ब्रह्मपुरीविषे ब्रह्मारूप होकरि स्थित होती है, पञ्चमुख होकरि रुद्ररूप स्थित होती है, स्वर्गविष इंद्ररूप होकरि स्थित होती है, तीक्ष्ण कलाकरि सूर्यरूप दिनका कर्ता होती है, क्षण दिन मास वर्षको करती है, चंद्रमा होकरि रात्रिको करती है, काल होकरि नक्षत्रको करती है, कहूँ प्रकाश, कहूँ तम होती है, कहूँ बीज, कहूँ पाषाण, कहूँ मनरूप होती है, कहूँ नदी होकर बहती है, कहूँ फूल होकरि फूलती है, कहूँ भँवरा होकरि सुगंध लेती है, कहूँ फल होकरि दिखावती है, कहूँ वायु होकरि चलती है, कहूँ अग्नि होकरि जलावती है, कहूँ बर्फ होती है, कहूँ आकाश होकरि दिखावती है॥ हे मुनीश्वर! इसप्रकार सर्वात्मा सर्वगत सर्व शक्तता करिकै एकहीरूप चित्तशक्ति आकाशते भी निर्मल है, जैसे चेता तैसे होकरि स्थित भई है, जैसी जैसी भावना करती है, शीघ्रही तैसा रूप हो जाती है, परन्तु स्वरूपते इतर कछु नहीं होती जैसे समुद्रविषे फेन तरंग होकरि भासता है, परंतु जलते इतर कछु नहीं होता, जलही जल है, तैसे चित्तशक्ति अनेक रूप धारती है, परन्तु चेतनते कछु इतर नहीं होती, कहूँ हंस, कहूँ काक, कहूँ शूकर, मक्खी, चिडी इत्यादिक रूप धारिकरि संसारविषे प्रवर्त्तती है, जैसे जलविषे आय तृण भ्रमता है, तैसे भ्रमती है, अरु अपने संकल्पते आपही भय पाती है, जैसे गधेड़ा अपने शब्दकरि आपही पड़ा दौडता है, अरु भय पाता है , तैसे जीव अपने संकल्पकारिकै आपही भय पाता है॥ हे, मुनीश्वर! जीवशक्तिका आचार मैंने तुझको कहा है, इस आचारको ग्रहण करिकै बुद्धि नीच पशुधर्मिणी हुई है, स्वरूपके प्रमाद कारकै जैसा जैसा संकल्प करती है, तैसी तैसी कर्मगतिको प्राप्त होती है, अरु शोकवान होती है, अनंत दुःखको प्राप्त होती है, अपनी चैत्यताकरिके मलिन होती है, जैसे चावलका स्वरूप तुषकरि आवरा जाता है, अरु बड़े संतापको प्राप्त होता है, बहुरि बहुरि बोता है, बहुरि उगता