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102 योगिराज श्रीकृष्ण
 


का कर्तव्य है कि अपने वर्ण तथा आश्रम के धर्म का पालन करे। तू यह भी जानता है कि आपत्ति काल का धर्म भिन्न होता है। मैं तो दोनो लोकों के राज्य के लिए भी धर्म त्यागने पर राजी नहीं हूँ। मैं समझता हूँ कि मैं जो कुछ करने लगा हूँ वह धर्म के अनुकूल है। फिर भी कृष्ण हम सबमें पवित्र, विद्वान् और धर्मशास्त्र में निपुण हैं। कृष्ण से व्यवस्था ले लो कि इस समय क्या धर्म है। जो कुछ वह व्यवस्था देंगे वह मुझे स्वीकार्य होगी।"

इस पर कृष्ण ने संजय से कहना आरम्भ किया--

" हे संजय! तू जानता है कि मैं इन दोनों पक्ष वालो का शुभचिन्तक हूँ! मैं नहीं चाहता कि कौरव और पाण्डव नष्ट हों। मैं इनकी भलाई चाहता हूँ। मैं पूर्व से ही दोनों को सन्धि कर लेने का उपदेश देता आया हूँ। जहाँ तक मैं देखता हूँ युधिष्टिर अन्तःकरण से सन्धि चाहता है। उसने अभी ऐसी कोई कार्रवाई नहीं की, जिससे इसके विरुद्ध भाव प्रकट हो। परन्तु जब धृतराष्ट्र और उसके पुत्रों के नेत्रों पर लोभ ने पट्टी बाँध रखी है तो मैं नहीं समझता कि यह युद्ध कैसे रुकेगा?

“धर्म और अधर्म का लक्षण तू भी भली भाँति जानता है, पुनः आश्चर्य है कि तु युधिष्ठिर जैसे पूर्ण क्षत्रिय को ताना देता है। युधिष्ठिर अपने धर्म पर स्थिर है, और उसे शास्त्रानुसार अपने कुल की भलाई का चिन्तन करना है।

"ज्ञान और कर्म विषयक जो तुमने उपदेश किया है, वह ऐसा विषय है जिसके बारे में ब्राह्मणों को कभी एक सम्मति नहीं रही है। अनेकों की राय है कि परलोक की सिद्धि कर्मो से ही होती है। अन्य लोग कहते हैं कि मुक्ति केवल ज्ञान से मिलती है, और इसके लिए कर्मों का नाश करना ही जरूरी है। ब्राह्मण जानते है कि यद्यपि हमको खाने के पदार्थो का ज्ञान चाहे हो, पर भूख का नाश तव तक नहीं होता जब तक हम भोजन नहीं कर लेते! ज्ञानकाड की वह शाखा जो कर्मकाण्ड में सहायता देती है, वह अधिक फलदायक है, क्योकि कर्म का फल प्रत्यक्ष है। प्यासा पानी पीता है और पानी पीने के कर्म से उसकी प्यास बुझ जाती है, इससे स्पष्ट है कि केवल ज्ञान से कर्म श्रेष्ठतर है। सृष्टि में कर्म ही प्रधान दीख पड़ता है। वायु, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि और पृथिवी सब कर्म करते हुए अपना-अपना धर्म-पालन कर रहे हैं। सारे आप्त पुरुषों, विद्वान् ब्राह्मणों और क्षत्रियों की भी यही व्यवस्था है। फिर हे संजय! यह सब कुछ जानकर भी क्यों धृतराष्ट्र के पुत्रों का पक्ष लेकर उनकी वकालत करने आये हो। तुम जानते हो कि युधिष्ठिर वेद का ज्ञाता है, उसने राजसूय यज्ञ किया है, घोड़े और हाथी की सवारी करना और शस्त्र चलाना उसका काम है। अब तू ही बता, ऐसी दशा में वह कौन-सा उपाय है जिससे युधिष्टिर धर्म से पतित न हो। परन्तु तुझे इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि युधिष्ठिर राजपुत्र है। अब बता कि शास्त्र राजा के लिए क्या आज्ञा देते है। लड़ना या न लड़ना, उसका क्या धर्म है?

"शास्त्र में जो क्षत्रियों के धर्म लिखे है उनका विचार करके तुझे अपनी सम्मति देनी चाहिए। क्या क्षात्रिय का यह धर्म नहीं कि वह विद्या का प्रचार करे, धर्म की रक्षा करे, अपनी प्रजा का पालन करे ऐसे नियम बनाये और इस तरह प्रबन्ध करे जिसमें सब लोग वर्णाश्रम