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पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१०१

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सजय का दौत्य कर्म /101
 

उत्तर में युधिष्ठिर ने जो कुछ कहा वह हमारी पुस्तक से अधिक संबंध नहीं रखता। यहाँ इतना कह देना पर्याप्त होग कि युधिष्ठिर ने संजय को अच्छी तरह से समझा दिया कि यद्यपि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने हमसे बड़ी अनीतियाँ की हैं और मेरे भाई उनसे बदला लेना चाहते हैं; किन्तु मै सन्धि करने पर राजी हूँ, यदि मुझे मेरी राजधानी इन्द्रप्रस्थ दे दी जाय।

संजय तो अपने स्वामी की ओर से आसन्न युद्ध के हानि-लाभ पर तर्क-वितर्क करने आया था इसलिए उसने युक्ति से अधिक काम लिया और युधिष्ठिर को संसार के नाशवान् होने पर व्याख्यान देना आरम्भ कर दिया। आजकल के विभिन्न मत-मतान्तरों की भाँति वह युधिष्ठिर को उपदेश देने लगा, “हे राजन्! संसार में काम सारी बुराइयों की जड़ है। जो निष्काम है वही परमात्मा को प्राप्त हो सकते है। काम ही हमको सांसारिक बन्धन में फँसाता है और बार-बार जन्म-मरण की श्रृंखला से निकलने नहीं देता। ज्ञानवान् सांसारिक पदार्थो की परवाह नही करता और कर्मों के बन्धन से स्वतंत्र हो जाता है। तू ज्ञानवान होकर फिर क्यों ऐसे कर्म करता है जो निन्दनीय है। संसार के यावत् सुख-दु:ख क्षणिक हैं। जो पुरुष संसार के सुखो की इच्छा करता है वह उन सुखो के हेतु धर्म भी हार देता है। मेरी सम्मति में राजपाट के लिए लड़ाई करने से भिक्षा माँगकर पेट भरना अच्छा है, क्योंकि युद्ध में मनुष्य तरह-तरह के पाप करता है। इसलिए हे युधिष्ठिर! तू इस काम से अपनी आत्मा को भ्रष्ट मत कर। तू वेदों का ज्ञाता है और तूने पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन भी किया है। यज्ञ भी किये हैं। तुझे उचित नहीं कि इस निन्दनीय कार्य से अपने विमल यश पर बट्टा लगाये। हे राजन्! इस पाप से तेरी सारी तपस्या और आत्मा की पवित्रता नष्ट हो जाएगी। लड़ाई धार्मिक भाव के विरुद्ध है। तू क्रोध मे आकर लड़ाई पर तत्पर हो गया है, परन्तु स्मरण रख, क्रोध सब पापों की जड़ है। प्रत्येक पुरुष को चाहिए कि वह क्रोध से बचे, और अपनी इन्द्रियों को वश मे रखे। हे राजन! अपने क्रोध को शान्त कर और अपनी आत्मा को उस महाहत्या से बचा। अपने पितामह, भाई, भतीजे, तथा इष्ट मित्रो के वध से तुझे क्या मिलेगा? तेरी इस कार्रवाई से लाखों वर निर्वंश हो जायेंगे। घर-घर में रोना-पीटना मच जाएगा। लाखों स्त्रियाँ तेग नाम लेकर रोयेंगी और तुझे कोसेंगी। इस विध्वंस के बाद यदि तुझे राजपाट मिल भी गया तो क्या वह सुखदायक होगा? क्या इस राजपाट से तू मृत्यु और बुढ़ापे के पंजे से बच जाएगा, फिर क्यों पाप से अपने हाथ रंगता है। वे तेरे शत्रु हैं जो तुझे युद्ध करने की राय देते है। यदि तेरे मंत्रदाता इस सम्मति को नही पलटते तो तू इस सिद्धान्त को छोड़ और राजपाट छोड़ वन का रास्ता ले। यदि यह नहीं हो सकता तो और कुछ कर, पर लड़ाई के पास न जा।"

इस विस्तृत वस्तृता के उत्तर में युधिष्ठिर ने संजय से कहा, "हे संजय! मुझे यह उपदेश देने से पहले तुझे चाहिए था कि तू धर्म और अधर्म के लक्षण वर्णन करता, जिसे सुनकर हम यह निश्चय कर सकते कि यह लड़ाई धर्म है या अधर्म। तू जानता है कि धर्म और अधर्म का निर्णय करना कितना कठिन है। प्राय: धर्म अधर्म प्रतीत होता है और अधर्म धर्म। इसी प्रकार आपत्ति के समय में भलाई और बुलाई में अर्थ-भेद पड़ जाता है। इसलिए प्रत्येक पुरुष