है। यदि वह मेरे ऊपर आक्रमण करे तो वह निश्चय ही मुझे मारने में समर्थ होगा, परन्तु मै उससे स्वयं युद्ध नहीं करूँगा।
भीष्म के पास से लौटने पर पाण्डवों ने यह निश्चय किया कि दूसरे दिन शिखडी के ही युद्ध का सेनापति बनाकर धावा किया जावे। जब दूसरा दिन हुआ तो अर्जुन ने शिखडी को ही अगुआ करके धावा कर दिया। भीष्म भी इस युद्ध मै अर्जुन को कठोर आघात पहुँचाते रहे और दुर्योधन की सेना के अन्य शूरवीर लोग भी शिखंडी को लक्ष्य करके निशाने मारते महाभारत की शोध करने वाले व्यक्ति तो इस बात को पीछे की मिलावट ही मानते है क्योंकि यह समस्त वृत्तान्त पाठक को पूरा विश्वास नहीं दिलाता। प्रथम तो भीष्म जैसे दृढ़ प्रतिज्ञ व्यक्ति के लिए यह कब संभव था कि वह शत्रु को अपनी मृत्यु का उपाय बतलाकर दुर्योधन से विश्वासघात करना। भीष्म तो दुर्योधन के पक्ष में युद्ध की प्रतिज्ञा कर चुका था क्योंकि वह राजा धृतराष्ट्र का सभासद था और विपक्ष में उनके वंश-विरोधी महाराज पांचाल थे। अन्तःकरण से तो वह युधिष्ठिर के ही पक्ष में था और जानता था कि दुर्योधन और धृतराष्ट्र अधर्म पर है परन्तु अपनी मानसिक इच्छाओं द्वारा वह उन कर्तव्यों को समूल नष्ट नहीं कर सकता था जो कौरव राज्य के प्रतिष्ठित से प्रतिष्ठित सभासट लेने के संबंध से उस पर थे। इधर युधिष्ठिर को भी उसने राजा मान लिया था। न तो वह अपने राजा के विरोध में शस्त्र प्रहार करने में समर्थ था और न युद्ध से विमुख ही हो सकता था। इसके अतिरिक्त यह प्रकट है कि शिखंडी के रण में सामने आने पर भी भीष्म उस समय तक लड़ना रहा जब तक अर्जुन ने अपने बाणा की बौछार में प्रथम ही उसके सारथी को मार नहीं डाला। फिर उसके धनुष को भी गिरा दिया। भीष्म जो तीर निकालते, अर्जुन उनको भी काट डालता था। सशक्त होने पर भीष्म अपनी तलवार और ढाल लेकर रथ से उतरने लगा, कदाचित् इस विचार से कि अब वह तलवार की लड़ाई लड़ेगा, परन्तु अर्जुन ने तीरों की लगातार वर्षा कर उसकी ढाल और तलवार भी हाथ से गिरा दी। यहाँ तक कि वृद्ध भीष्म नवयुवक अर्जुन के तीरों से अशक्त हो भूमि पर गिर पड़ा। उसके गिरते ही महाभारत की लड़ाई का प्रथम दृश्य समाप्त हो गया। तीरों की शय्या पर पड़े हुए भीष्म ने दुर्योधन को मेल करने का उपदेश किया, परन्तु दुर्योधन कब मानने लगा। उसको अपनी सेना पर इतना भरोसा था कि भीष्म की पराजय के पश्चात् भी उसको अपनी अन्तिम जय की पूरी आशा थी।