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पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१३०

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अन्तिम दृश्य व समाप्ति / 131
 

का बदला लेकर ही मरूँगा।

कौरव सेना के ये तीनों बचे हुए वीर आपस में विचार करने लगे कि किस प्रकार से इस अभिलाषा को पूरा किया जाये। कृपाचार्य ने तो धर्म की लड़ाई लड़ने की सलाह दी, परन्तु अश्वत्थामा ने रात्रि को धोखे से युद्ध करने का विचार प्रकट किया। कृपाचार्य में उसे समझाया कि यह कार्य महापाप है। ऐसे महापाप के काम से तेरी आत्मा घोर नरक में पड़ेगी जिससे छुटकारा भी कठिन होगा । जीवन की अन्तिम अवस्था में इस प्रकार के भीरूपन का कार्य वीरता तथा प्रतिष्ठा पर बट्टा लगाएगा। सारी आयु की कीर्ति, यश और प्रसिद्धि पर पानी फिर जाएगा। ब्राह्मण संतान तथा शस्त्रविद्या में निपुण होकर तुझे यही योग्य है कि तू इस प्रकार के पाप से अपने पवित्र जीवन पर धब्बा न लगा। यद्यपि कृपाचार्य ने अपनी योग्यता से अश्वत्थामा को इस अधर्म की कार्रवाई न करने का उपदेश किया, परन्तु अश्वत्थामा पर कोई भी असर नहीं हुआ। ब्रह्मकोप शान्त नहीं हुआ। कृपाचार्य की धार्मिक वक्तृता की हर एक बात का अश्वत्थामा के चित्त पर ऐसा असर होता था जैसे जलती हुई आग में घी की आहुति देने से होता है। क्रोध में अपने आपे से बाहर हुआ अश्वत्थामा बदले की आग में भस्म होता हुआ चुपके से रात को पाण्डव शिविर में घुस गया। सबसे पहले तो वह सीधा पांचाल देश के राजा धृष्टद्युम्न के डेरे की ओर बढ़ा जिसने उसके बाप को मारा था। उसके रक्त में हाथ रंगकर फिर छोटों-बड़ों पर हाथ साफ करने लगा। यहाँ तक कि जो सामने आया चाहे सिपाही हो या राजपुत्र, वृद्ध या युवक, उस भयंकर रात्रि में द्रोणपुत्र के हाथ सीधा मृत्यु के मुँह में गया। अश्वत्थामा ने दिल खोलकर कत्लेआम किया और जब सब पाण्डव राजपुत्रों को मार चुका तो चुपके से खेमे के बाहर हो गया और सीधा उस स्थान पर गया जहाँ दुर्योधन पड़ा था। दुर्योधन अभी तक सिसक रहा था कि अश्वत्थामा वहाँ पहुँच गया। प्रथम तो दुर्योधन की अवस्था देखकर वह दुःख के सागर में डूब गया। उसके पास बैठकर खून के आँसू बहाये। अन्त मे रोते-रोते दुर्योधन को उस बदले का हाल सुनाया जिसे वह अभी पूरा करके आया था। दुर्योधन ने जब सुना कि पाण्डवों के पुत्र और पांचाल के सब राजपुत्र मारे गये तो उसने संतोष-भरी साँस ली और 'खूब किया', 'खूब किया' कहते हुए प्राण छोड़ दिये। महाभारत के युद्ध का अन्तिम दृश्य समाप्त हुआ। थानेश्वर के मैदान में इस घर की लड़ाई ने आर्यों की सभ्यता, उनके मान, उनकी बुजुर्गी और उनकी बड़ाई को धूल में मिला दिया। युद्ध के आरम्भ होने से 20 दिन के अन्दर-अन्दर भूमि के बड़े-बड़े योद्धा और वीर सिपाही, युद्धविद्या में निपुण अपनी वीरता और युद्ध की योग्यता को प्रकट करते हुए पंचतत्व से बने अपने शरारों को उन्हीं तत्त्वों में मिलाते हुए स्वर्ग चले गये। संसार को पता भी नहीं लगा कि वे कहाँ गए और क्या हुए।