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पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१३१

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बत्तीसवाँ अध्याय
युधिष्ठिर का राज्याभिषेक

युद्ध के समाप्त होते ही पाण्डवों ने कृष्ण को हस्तिनापुर के लिए विदा किया ताकि वे वहाँ जाकर युद्ध की पूरी स्थिति से धृतराष्ट्र को सूचित करें। यह कठिन कार्य किसी साधारण पुरुष के वश का नहीं था। कृष्ण हस्तिनापुर पहुँचे। धृतराष्ट्र और उसकी धर्मपत्नी गान्धारी दुःख में रोतेकलपते थे। कृष्ण ने इधर-उधर की बातें कर उनको ठंडा किया और संतोष दिलाया। अब गान्धारी ने अपने मृत पुत्रों के दर्शन की अभिलाषा प्रकट की और राजा धृतराष्ट्र रानियों के सहित रणभूमि की ओर चले। वहाँ पहुँचकर जो दृश्य इन रानियों ने देखा, वह असह्य था। रानियाँ देखती थीं और रोती थीं। उनके प्रिय पतियों के शव रक्त में लिपटे एक-दूसरे के ऊपर पड़े हुए थे। बहुतों को तो जानवरों ने पहचानने के योग्य ही नहीं रखा था, परन्तु बहुतों को अभी पहचाना जा सकता था। अपने-अपने सम्बन्धियों को देखकर स्त्रियाँ रोती थीं। गान्धारी अपने बेटो को देखकर रोती थी और कुन्ती अपने पोतों को रोती थी। सारे वंश में कोई स्त्री ऐसी नही थी जिसके लिए इस युद्ध में सिर पीटने और चिल्लाने के लिए सामग्री न थी। गान्धारी के बारे में यह प्रसिद्ध था कि वह बड़ी समझ वाली, बुद्धिमती और धर्मात्मा स्त्री थी। इसके संबंध में जो उल्लेख महाभारत में हैं उनसे इसके धैर्य, बुद्धिमत्ता और गम्भीरता के पूरे प्रमाण मिलते हैं, परन्तु कौन माता है जो अपने समस्त वंश को इस तरह अपने ही नेत्रों के सामने खून मे लिपटा हुआ देखकर अपने धैर्य को स्थिर रख सके। इसलिए कोई आश्चर्य नही कि कुरुक्षेत्र की भूमि में अपने पुत्रों के मृतक शरीरों को देखकर उसने कृष्ण को शाप दिया और उनको इस बरबादी और रक्तपात का जिम्मेदार ठहराया। अन्त में कृष्ण के द्वारा चाचा और भतीजों में मिलाप हो गया। भतीजों ने बड़ी नम्रता से चाचा और चाची के चरणों पर सिर रख दिये। युधिष्ठिर पर तो इतना दुख छाया हुआ था कि उसने राज्य करने से इन्कार कर दिया। उसके भाई समझाते थे परन्तु वह नहीं मानता था। यहाँ तक कि स्वयं धृतराष्ट्र और गान्धारी ने भी युधिष्ठिर को बहुत कुछ समझाया, परन्तु उसने अपने मन्तव्य पर दृढ़ता प्रकट की और यही कहते रहे कि भाई-बंधुओं और बड़ों के रक्त में हाथ रँगकर अब राज्य करने मे मुझे क्या सुख हो सकता है! मेरे लिए तो अब यही शेष है कि तप करके अपने पापो का प्रायश्चित्त करूँ और अवशिष्ट जीवन परमात्मा की याद में अर्पण करके अपनी आत्मा को दुख व क्लेश से बचाऊँ। अन्त में जब सब कह चुके और कुछ भी असर नहीं हुआ तो फिर कृष्ण ने उन्हें कुछ व्यंग्य-वचन सुनाये। कभी नर्मी और कभी गर्मी से काम लेते हुए उन्होंने अंत में या धर्म के नाम पर युधिष्ठिर से अपील की और उसको वश में कर लिया कृष्ण का सारा