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140/ योगिराज श्रीकृष्ण
 


मे भिन्न-भिन्न साधनों के परस्पर संबंध प्रकट कर उनका अंतिम परिणाम एक ही बतलाया गया है अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति।

मेरे इस वाद-विवाद से आप यह परिणाम न निकालें कि मैं अपनी सम्मति में गीता का छिद्रान्वेषण करता हूँँ। मैं तो अपने को उन विद्वानों की चरण-रज के तुल्य भी नहीं समझता जिन्होंने गीता बनाई। मैं तो शायद कई जन्मों में उनकी युक्तियों के मर्म को भी नहीं समझ सकता हूँ। मैं उनकी विद्वत्ता और ज्ञान के सम्मुख प्रसन्नतापूर्वक सिर झुकाता हूँ। परन्तु फिर भी यह कहने से नहीं रुक सकता कि गीता मुझे एक ही विद्वान् की कृति नहीं मालूम होती। गीता रचने वालों का मतलब दर्शनशास्त्र की रचना से नही था अपितु मनुष्य मात्र के नित्यप्रति के व्यवहार के लिए एक ऐसे उपदेश का संग्रह करने का था जिसमें दर्शनों का निचोड़ इस भाँति आ जावे जिससे उसका समझना कठिन न हो। निदान इस निचोड़ को उन्होंने जिस उत्तमता से संग्रह किया उससे उनकी अद्वितीय बुद्धिमत्ता का ही परिचय मिलता है।

यदि ग्लेडस्टोन और टिण्डल जैसे विद्वान् अपने धर्मग्रन्थ इंजील को ईश्वरीय वचन और मसीह को ईश्वर का पुत्र बल्कि स्वयं उसको ईश्वर मान सकते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है कि गीता के भिन्न-भिन लेखकों में से किसी ने कृष्ण महाराज को अवतार की पदवी दे दी। चाहे वह इसी अभिप्राय से हो कि जो कुछ वे उपदेश करना चाहते थे उसका आदर हो और वह सर्वथा प्रामाणिक वचन माना जाये। चाहे वह वास्तव में कृष्ण महाराज को अवतार ही मानते थे अथवा नहीं। क्या यह आश्चर्य नहीं है कि गीता के अतिरिक्त और किसी प्राचीन पुस्तक या आर्य ग्रन्थ में न तो साधारणत: अवतारों का वर्णन है और न कृष्ण महाराज के अवतार होने का, क्योंकि पुराणों के विषय में तो हम भूमिका में प्रमाणित कर ही चुके है कि वे वर्तमान समय के कुछ ही पहले के बने हुए हैं। इसलिए केवल उनके आधार पर नहीं कहा जा सकता कि प्राचीन आर्य लोग परमेश्वर को अवतार मानते थे या कृष्ण महाराज को ऐसा मानते थे।