पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 139
 

 का पद बहुत प्रतिष्ठित समझा जाता था और ऐसे ऋषि आचार्य भी होते थे तथापि ब्रह्मर्षि की पदवी सर्वश्रेष्ठ थी जैसा कि विश्वामित्र और वशिष्ठ के उपाख्यानों से विदित होता है। दूसर कोई उल्लेख या पुराण कथा हमको यह नहीं बताते कि अर्जुन या युधिष्ठिर को उपदेश करने के सिवाय उन्होंने कभी सर्वसाधारण मे धर्म प्रचार की चेष्टा की हो। वास्तविक बात तो यह है कि धर्म-प्रचार उनका लक्ष्य ही नहीं था। वे जन्म और स्वभाव से पूरे क्षत्रिय थे इसलिए यथावश्यक उन्होंने अपने क्षत्रिय भाइयो के समक्ष अपने धार्मिक विचार प्रकट किये। समय-समय पर युधिष्ठिर और अर्जुन के हतोत्साहित होने पर कृष्ण महाराज ने क्षात्रधर्म की व्याख्या की और इस अवस्था में धर्म के विषय में उन्होने जो कुछ कहा वह सब लोकहित-साधन के लिए ही कहा। इसके अतिरिक्त अन्यत्र कभी उन्होंने न तो धर्मोपदेश दिया और न धर्म-प्रचार करने की चेष्टा ही की। न तो उन्होंने धर्म विषय पर कोई ग्रन्थ लिखा और न कभी शास्त्रार्थ किया जैसा उपनिषदों में जनक महाराज के नाम से प्रसिद्ध है। कृष्ण महाराज ने अपने सखाओं को जो कुछ धर्म का उपदेश किया वह समयानुसार अत्यावश्यक जानकर ही किया। इसलिए हमारा विचार है कि गीता के सारे उपदेश को उनके सिर मढ़ना उचित नहीं है। भला लड़ाई के समय में ऐसी लम्बी, युक्तिपूर्ण, सूक्ष्म दर्शन की बाते छाँटने का कौन-सा अवसर था? मतलब तो केवल इतना था कि अर्जुन को लड़ाई के लिए उत्साहित किया जाये और यह मतलब उतने मे ही पूरा हो जाता है जितना दूसरे अध्याय में लिखा है!

बस इससे अधिक जो है वह पीछे के पंडितो की मिलावट है। गीता के 18 अध्याय के लेख को देखने से मालूम हो जाएगा कि अनेक विचारों को प्रत्येक अध्याय में दोहराया गया है। कृष्ण के उपदेश का वह भाग जिसके द्वारा अर्जुन को लड़ने के लिए उत्साहित किया गया था, सम्भवत: इन सब अध्यायो मे उन्हीं के शब्दो में मौजूद है, यद्यपि हर एक अध्याय का वर्णन अलग-अलग है। अस्तु, हमारी राय में भगवद्गीता में कृष्ण का उपदेश उतना ही है जितना कि सब अध्यायों में पाया जाता है। शेष उक्तियाँ दूसरे विद्वानों द्वारा बढ़ाई गई है। इस विवाद से यह भी परिणाम निकलता है कि गीता एक ही लेखक की लिखी हुई नही है और न उन वेदव्यास कृत हो सकती है जो वेदांत दर्शन के बनाने वाले कहे जाते हैं। यह कदापि संभव नही कि व्यास जैसा दर्शन का ज्ञाता पुरुष एक ही विचार को वार-बार दुहराता जैसा उसने गीता में दोहराया है। दर्शनकारों की श्रेष्ठता यही है कि उन्होंने बड़ी-से-बड़ी और कठिन-से-कठिन युक्तियों को सरल और संक्षिप्त शब्दों में वर्णवद्ध कर दिया। बड़े-बड़े मोतियों को बारीक धागे ने पिरोकर रख दिया। परन्तु गीता का क्रम, गीता की लेखन-प्रणाली और काव्यशैली इसके विरुद्ध है। कोई-कोई यूरोपियन विद्वान् तो इससे यह परिणाम निकालते हैं कि गीता दार्शनिक समय से पहले की बनी हुई है, अर्थात् उस समय की हैं, जिसमें दर्शनों की भाँति क्रमवद्धता और वैज्ञानिक युक्तियाँ आर्यो में जारी नहीं हुई थीं। पर मेरी समझ में यह विचार ठीक नहीं हैं क्योकि गीता के लेख से यह प्रमाणित करने की चेष्टा की गई है कि समस्त दर्शनो का अभिप्राय मनुष्य को एक ही तत्त्व तक पहुँचाता है। गीता से हमको यही शिक्षा मिलती है कि ज्ञान से कर्म से ध्यान से भक्ति से और योग से किस तरह मुक्ति मिलती है गीता