पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१४७

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कृष्ण महाराज का शिक्षा 149
 

मेरी खातिर हो और मेरे अर्पण हो।

धर्म अपने साम्राज्य मे किसी को साझीदार नहीं बनाना और न अपने राज्य में किसी दूसरे को अपने बराबर का आसन देता है। तात्पर्य यह कि वह स्वयं सर्वशक्तिमान् होना चाहता है। किसी का संग उसे किसी प्रकार स्वीकार नहीं और न उसको यह हक है कि उसके भक्त को उसकी आज्ञापालन में जरा भी सोच-संकोच हो। अस्तु, धार्मिक वही हो सकता है जो धर्म की आज्ञा पालने में न सिर की परवाह करे न पैर की, न तन की परवाह करे और न धन की। कृष्ण महाराज की आज्ञानुसार जो खाता है तो इसलिए कि उसकी आज्ञा है, पीता है तो इसलिए कि उसकी आज्ञा है, दान देता है तो इसलिए कि उसकी इच्छा है, यज्ञ करता है तो इसलिए कि इसमे उसकी प्रसन्नता है। ऐसा ही पुरुष धर्मपरायण हो सकता है और ऐसा पुरुष ही दूसरों को धर्मपरायण होने की शिक्षा दे सकता है। खेद है कि इस देश में न अब धर्म है और न कोई धर्म परायण है। इसी वास्ते यह अभागा देश और इस देश के रहने वाले तरह-तरह की आपत्तियों में फँसते हैं! प्रत्येक मनुष्य अपनी इच्छानुसार धर्म का मनमाना स्वरूप बना लेता है और उस अपनी बनाई हई तस्वीर को पूजा से मुक्ति पाने की इच्छा करता है। केवल इतना ही नहीं करता, औरों को भी उस तस्वीर की तरफ खीचता है और यही पुकारता है कि मेरे कथन पर जो संदेह करे वह काफिर है। परन्तु यदि प्राचीन समय के धर्मपरायण लोगों की साक्षी देखें तो पता चलेगा कि धर्म वेदों से मिलता है। वेद इस समय बहुत कठिन है क्योंकि इनके अर्थों का द्वार बंद है और इस महान् पवित्र विषय में बुद्धिहीन तथा संकीर्ण हृदय मनुष्य का प्रवेश ही नहीं है। हम लोग तो उस महान् द्वार की कुण्डी भी नहीं खोल सकते, फिर इसमें बैठकर उसका रसास्वादन बहुत दूर है।

प्रश्न-तो क्या हमारा रोग असाध्य है और इसकी कोई औपधि ही नहीं?

उत्तर-इसके अतिरिक्त और कोई औषधि नहीं कि हम धर्म के तत्त्वों की खोज करें जो धर्म के पार्श्ववर्ती हैं।

प्रश्न-वह क्या है?

उत्तर-देखो भगवद्गीता अध्याय 16 के श्लोक 1, 2, 3

(1) अभय (सिवाय परमेश्वर के और किसी से न डरना) (2) मन की शुद्धि (3) बुद्धि योग में स्थिरता (4) दान 5) दम (अपनी इन्द्रियों को वश मे करना) (6) यज्ञ (धार्मिक कर्म) (7) स्वाध्याय (शास्त्रों का पठन पाठन) (8) तप (9) अहिंसा (धर्म के विरुद्ध किसी को हानि न पहुँचाना) (10) सत्य (11) क्रोध का दमन (12) त्याग (13) शांति (14) वीरता (15) दृढ़ता (16) क्षमा।

हमारा यह कर्तव्य होना चाहिए कि ईश्वर के उस दरवार में जाने के लिए धर्म के निकटवर्ती लोगों से सहायता पाने की प्रार्थना करें और उचित मार्ग से उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर उनके पूरे कृपापात्र बने।

धर्म हेतु धर्म करना प्रत्येक जीवात्मा का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बहुत से पड़ावों को पार करना पड़ता है। इन पड़ावो में से किसी एक पड़ाव को अपने जीवन