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152/ योगिराज श्रीकृष्ण
 


बेजोड़ था, परन्तु प्राचीन आर्य साहित्य मे यह शिक्षा एक श्रृंखला की कड़ी मात्र थी और यही वैदिक धर्म का बुनियादी पत्थर है। यही महापुरुष अपने इस लेख में एक यूरोपियन कविता का हवाला देता है, जिसका अर्थ यह है:

"फौलाद हमारी आँखों के सामने डरावनी सूरत में चमकता है और रास्ते में कदम-कदम पर आपत्ति हमारी बाट देखती है, मगर तो भी लॉर्ड कहता है, बढ़े चलो! बढ़े चलो! दम न लो। हम पूछते हैं कि हुजूर यह तो बतादें कि हम किधर जा रहे है? जबाब मिलता है कि अय लोगो, मरना तो है ही (फिर डरना क्या) आगे बढ़ो और मरो। अय लोगो, जहमत तो उठाना ही है (फिर डरना क्या) आगे बढ़ो और जहमत उठाओ।"

पाठको, आपने भगवद्गीता को पढ़ा या सुना, आपने महाभारत को देखा या पढ़ा, क्या यही उपदेश महाराज कृष्ण का नहीं है कि हे अर्जुन, तुम याद रखो, शरीरधारी मनुष्य मात्र को मरना तो अवश्य ही है, फिर भरने और मारने से क्या डरना। उठो और युद्ध करो, न मरने से डरो और न मारने से, जो तुम्हारा धर्म है उसका पालन करो।

सच तो यह है कि सच्चा धार्मिक वही पुरुष हो सकता है जो इस तरह अपने धर्म के लिए न मरने से डरे और न मारने से। जिसकी नजरों में इस धर्म के सामने दुनियादारी की सब बातें तुच्छ हैं।

हे मेरे स्वजातीय भाइयो, अपने हृदय पर हाथ रखो और सोचो कि इस नियम के अनुसार हमारी जाति में कितने धर्मात्मा है और कितने ऐसे है जो इस उद्देश्य की पूर्ति में धर्मात्मा बनने के लिए इच्छुक है?

क्या आजकल हमारी जाति का और हमारा धर्म आराम का धर्म नहीं है? हममें से कितने लोग हैं जो अपने कर्तव्य और अपने धर्म के हेतु सब तरह के झंझट और दुःख उठाने के लिए तैयार हैं? क्या सैकड़ों-हजारों, नहीं लाखों हिन्दू हर साल पैसों, रुपयों, औरतो, ओहदों इत्यादि नाचीज वस्तुओं के लिए अपना धर्म बेच नहीं देते? क्या हममें से कोई भी ईमानदारी से यह कह सकता है कि मैं अपने धर्म की खातिर हर तरह का दुःख उठाने को तैयार हूँ? हाँ, अफसोस, इस देश में न धर्म रहा और न धार्मिक लोग। केवल जबानी जमा-खर्च रह गया-हमारा धर्म, हमारी देशभक्ति, हमारा स्वजातीय प्रेम, हमारा उपकारी जीवन खाली लिफाफे की तरह है! उसके अन्दर न उद्देश्य के नोट हैं न सच्ची इच्छाओं की चिट्ठियों। संभव है कोई महान् पुरुष अपने जीवनचरित से हमें धर्म का सच्चा लक्ष्य बतला दे और इस भूली हुई जाति का हाथ पकड़कर उसे सीधे रास्ते पर डाल दे।