पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१४९

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कृष्ण महाराज की शिक्षा /151
 

मैं जिन्दगी के उद्देश्य को अपनी जिन्दगी के आराम व कष्ट से, सिद्धि व असिद्धि से लोगो की प्रीति व अप्रीति तथा योग और वियोग के विचारों से ही जाँचता हूँ।

दुःख है कि अपने ही कर्म से मै अपने इस विश्वास को जवाब दे बैठा कि नर-देह तो क्षणिक है और भिन्न-भिन्न जीवन में इस प्रकार उन्नति करता है जैसे कोई आदमी इस विश्वास से एक बहुत ऊँचे पहाड़ पर चढ़ता जावे मानो वहाँ ईश्वर बैठा है और वहाँ पहुँचने पर उसके दर्शन मिलेगे। आत्मा के भिन्न-भिन्न जीवन तो वास्तव में एक ही लड़ी के दाने हैं जिनसे आत्मा शनै-शनैः प्रकाश पाता हुआ उन्नति करता है।

प्रत्येक जीवन का एक न-एक लक्ष्य होता है अन्यथा जीवन का अर्थ हा क्या होगा? इसके अतिरिक्त जो लोग जीवन शब्द का दूसरा अर्थ लगाते हैं वे अपने ठीक रास्ते से भूले हुए है। वह जीवन ही क्या जिसका कोई लक्ष्य या उद्देश्य न हो। अतएव जिन्दगी का एक मुख्य उद्देश्य नियत करके फिर वह लिखता है कि इस प्रधान लक्ष्य के अन्तर्गत प्रत्येक जीवन की कोई वासना होती है जो इसकी विशेष अवस्था पर निर्भर होती है परन्तु जिसका स्वभाव भी उसी लक्ष्य की प्राप्ति है, जो प्रत्येक जीवात्मा का अंतिम लक्ष्य है। कुछ मनुष्यों के जीवन कर अभिप्राय यह होगा कि वह अपने इर्द-गिर्द के लोगों के आचार और व्यवहार को सुधारे अर्थात् अपनी जाति की शिक्षा को सुधारें।

जो लोग इनसे भी अधिक उन्नतिशील हैं वे अपनी जाति मे जातीयता के विचार को फैलाने की चेष्टा करें या धार्मिक और राजनीतिक उन्नति का बीड़ा उठावें। येन केन प्रकारेण यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि जीवन एक मिशन है और कर्तव्य या उसका धर्म उसके लिए अच्छे से अच्छा नियम है। प्रत्येक पुरुष की उन्नति इस पर निर्भर है कि वह अपनी जिन्दगी के मिशन को समझकर उसके अनुसार ही अपना कर्तव्य-पालन करे, क्योंकि इसी कर्तव्य को पालन करने या न करने पर यह बात भी निर्भर होगी कि इस जीवन के अन्त होने पर फिर उसको किस प्रकार का जीवन मिलेगा। प्रत्येक पुरुष को स्वयं यह अधिकार है कि वह अपने कर्मों द्वारा अपने भाग्य का निर्णय करे। हममें से प्रत्येक पुरुष का यही कर्तव्य है कि अपनी आत्मा को साफ और पवित्र बनाकर उसी को अपना ध्यान मंदिर बनावे। स्वार्थ से उसे पृथक् कर बहुत गम्भीर विचार से अपने जीवन का उद्देश्य नियत करे और अपनी अवस्था के अनुभव से यह भी निश्चय करे कि उसके देश या उसकी जाति मे किस बात की विशेष आवश्यकता को वह अपनी अवस्था या योग्यता के अनुसार किस तरह और किस कदर पूरा कर सकता है। इस तरह से अपने उद्देश्य को लक्ष्य करके फिर उसको पूर्ण करने में लग जावे और फिर जन्म-भर उस काम से न हटे, चाहे उसको दु:ख हो या सुख, कामयाबी या नाकामयाबी, उसको दूसरों से मदद मिले या न मिले।

यदि इस यूरोपियन महापुरुष के हाथ में गीता होती तो न तो वह आर्यों के धर्म के विषय मे गलत विचार बनाता और खुद उसको जीवन के सदाचार को, दर्शन को नियत करने मे इतनी दिक्कत न होती जितनी कि हुई। उसकी पैदाइश से हजारों वर्ष पहले एक आर्य महापुरुष ने यही शिक्षा दी थी जिसका प्रकाश उस पर हुआ उसके लिए तो यह प्रकाश अचानक और