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पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१७

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सम्पादकीय / 15
 


था) को अपने पौरुष को प्रख्यापित करने के लिए कहना पड़ा--

सूतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम्।

दैवायत्तं कुले जन्मः मदायत्तं तु पौरुषम्॥

मै चाहे सूत हूँ या सूत पुत्र, अथवा अन्य कोई। किसी कुल-विशेष में जन्म लेना यह तो देव के अधीन है, मेरे पास तो मेरा पौरुष और पराक्रम ही है, जिसे मैं अपना कह सकता हूँ।

क्षत्रिय कुमारो के मिथ्या गर्व को संतुष्ट करने के लिए ही एकलव्य जैसे शस्त्र विद्या के जिज्ञासु बनवासी बालक को आचार्य द्रोण ने अपना शिष्य बनाने से इन्कार कर दिया। उस युग मे धर्माधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य, नीति-अनीति का अन्तर प्राय: लुप्त हो चुका था। समाज में अर्थ की प्रधानता थी और जीविका के लिए किसी भी अधर्म को करने के लिए लोग तैयार रहते थे। यह जानते हुए भी कि कौरवों का पक्ष अधर्म, अन्याय और असत्य पर आश्रित है, भीष्म जैसे प्रज्ञापुरुष ने यह कहने में संकोच नहीं किया-

अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।

इति मत्वा महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः॥

हे महाराज, पुरुष तो अर्थ का दास होता है, अर्थ किसी का दास नहीं होता। यही जानकर मै कौरवों के साथ बँधा हूँ।

इन्हीं विषम तथा पीड़ाजनक सामाजिक परिस्थितियों को वासुदेव कृष्ण ने देखा। फलत शोषित, पीड़ित तथा दलित वर्ग के प्रति उनकी सहानुभूति ने सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया। ताप-शाप-प्रपीड़ित त्रस्त जनों के प्रति उनकी संवेदना नाना रूपो में प्रकट हुई। तभी तो राजसभा में तिरस्कृत और अपमानित कृष्णा (द्रौपदी) को उन्होंने सखी बनाया तथा दुर्योधन के राजसी आतिथ्य को ठुकराकर दासी पुत्र समझे जाने वाले विदुर के घर का भोजन स्वीकार किया। लोकनीति के ज्ञाता होने के कारण अपने इस आचरण का औचित्य प्रतिपादित करते हुए उन्होने कहा-

सम्प्रीति भोज्यान्ययन्नानि आपद् भोज्यानि वा पुनः।

न च सम्प्रीयसे राजन् न चैवापद्गता वयम्॥

उद्योग पर्व 91/25

हे राजन्, भोजन करने मे दो हेतु होते हैं। जिससे प्रीति हो उसके यहाँ भोजन करना उचित है अथवा जो विपत्तिग्रस्त होता है वह दूसरे का दिया भोजन ग्रहण करता है। आपका और मेरा तो प्रेम भाव भी नहीं है और न मै आपदा का मारा हूँ जो आपका अन्न ग्रहण करूँ।

कृष्ण के इस उदात्त स्वरूप एवं चरित्र को शताब्दियों से भारतीय जनता ने विस्मृत कर रखा था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय जिस महापुरुष की विनम्रता और शालीनता को हमने विद्वंत् वर्ग के चरण-प्रक्षालन जैसे विनयपूर्ण कृत्य में देखा उसे ही यज्ञारम्भ ने सर्वप्रथम अध्य प्रदान कर सम्पूजित होते हुए भी हम देखते हैं अपने युग के सर्वाधिक वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध