के प्राचीन ग्रन्थों में 'अग्नि' शब्द का प्रयोग (जिसका प्रयोग वैदिक ग्रन्थों में अद्वैत परमात्मा के
लिए हुआ है) विद्वान् ऋषि, मुनि, आप्त पुरुषों और महात्माओं के लिए हुआ है। यह भाव
ऐसा सर्वव्यापक है मानों प्रत्येक भाषा और प्रत्येक देशवासी इसी रंग में रँगा है। संस्कृत भाषा
में देव या देवता परमात्मा के लिए आता है। परन्तु महान् पुरुषों के लिए भी इस शब्द का
प्रयोग होता है। अँगरेजी में गॉड के अर्थ परमेश्वर के है; परन्तु उसी 'गॉड' शब्द का बहुवचन
'गॉड्स' देवताओं के लिए आता है। मुसलमान मतावलम्बी हजरत मुहम्मद को नूरे इलाही कहते
है। उधर ईसाई हजरत मसीह को 'खुदा का बेटा' मानते हैं। बौद्धमत वाले महात्मा बुद्ध को
'लार्ड' कहके पुकारते हैं। इसी प्रकार आर्यगण श्रीराम और श्रीकृष्ण को अवतार कहते है।
हिन्दुओं में आप्त पुरुष, ऋषि, मुनि और विद्वानों के आदर और पूजन की परिपाटी वैदिक समय
से चली आती है। वेदमंत्रों में स्थान-स्थान पर आज्ञा दी गई है कि तुम धर्मात्मा, और आप्त
पुरुषों का सत्कार करो और उनकी पूजा को अपना परम धर्म समझो। आर्य लोगों के नित्य
कर्म में भी विद्वानों और आप्त पुरुषों के पूजन को एक मुख्य कर्तव्य कहा है और हर एक यज्ञ
और उत्सव पर इसका करना आवश्यक समझा है। ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद् और दूसरे आर्य ग्रंथों
में इस विषय को पूरी-पूरी विवेचना की गई है। पर किसी वैदिक ग्रंथ में किसी महात्मा या
आप्त पुरुष को परमात्मा का पद नहीं दिया है।
3. अवतारों की यथार्थता
आर्यावर्त में सबसे पहले बौद्ध धर्म वालों की शिक्षा से लोगों को परमात्मा के अस्तित्व में महान्
शंका उत्पन्न हुई और इस पवित्र भूमि के रहने वाले परमात्मा की उपासना के उच्चासन से
गिरकर मानव-पूजन के अंधकार रूपी पाश में आ फँसे। उपासना की यह परिपाटी जनसाधारण
में ऐसी प्रचलित हुई कि वैदिक धर्मोपदेशकों ने भी बौद्ध धर्मानुयायी बनना अपने लिए हितावह
विचारा। ब्राह्मणो ने महात्मा बुद्ध के स्थान में श्रीरामचंद्र और श्रीकृष्ण को देवता बनाकर अवतारो
की पदवी दी। धीरे-धीरे इस भाव ने यहाँ तक जोर पकड़ा कि कुछ काल पश्चात् पौराणिक
भाषा के समस्त ग्रंथो में इसी की चर्चा दिखाई देने लगी और चारों ओर अवतार ही अवतार
प्रकट होने लगे। कवियों ने जो महान् पुरुषों के जीवन लिखने में अपने उच्च विचारों को प्रकट
किया था और खगोल विद्या पढ़कर तथा सब प्राकृतिक दृश्यों को देखकर काव्यबद्ध करने मे
जो समय व्यतीत किया था, उन कविजनों के परिश्रम और संस्कृत विद्या को पौराणिक समय के
धार्मिक ग्रंथ रचयिताओं ने समयानुकूल परिवर्तित कर दिया।
बस फिर क्या था, विद्या तथा धर्म के तत्त्ववेत्ताओं ने इस परिपाटी की ऐसी चाल चला दी कि लोक-परलोक के प्रायः सभी सिद्धान्त चाहे अच्छे हों या बुरे, परमेश्वरकृत कार्यो में सम्मिलित कर लिए गये और जनसाधारण को कारण और कर्ता में भेदाभेद का विचार न रहा। महान् पुरुषों के जीवनचरित इस साँचे में ढाले गये, कि दूसरी जाति वाले उनको मिथ्या, बनावटी और अपवित्र समझने लगे।