पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/२८

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भूमिका / 27
 

4. श्रीकृष्ण


कवियों के आत्यन्तिक प्रेम की उमंग से उत्पन्न मानसिक भावों की चंचलता और विश्वास की निर्बलता ने जो अपमान और अन्याय श्रीकृष्ण महाराज के साथ किया है उसका दूसरा दृष्टान्त किसी भाषा में नहीं दिखाई देता-यद्यपि श्री तुलसीदासजी ने अपनी भक्ति की तरंग मे श्रीरामचंद्रजी पर भी वैसे ही आक्षेप किये है, परन्तु उन्होने उनको उस दर्जे तक नहीं पहुँचाया है जहाँ तक पौराणिक साहित्य वालों ने श्रीकृष्ण को पहुँचा दिया है। इसका कारण यह जान पड़ता है कि श्रीरामचंद्र को श्रीकृष्ण के समान उपदेशक की उपाधि नहीं दी गई। श्रीराम को उनकी विमाता कैकेयी ने अपनी ईर्ष्या और द्वेष से वर बना दिया। इसलिए कवियों ने भी पितृभक्ति और भ्रातृस्नेह का मुकुट उनके माथे पर रख दिया। परन्तु यह मुकुट उसके मस्तक पर अधिक शोभायमान होता है जो प्रत्येक प्रकार से धार्मिक जीवन का आदर्श हो। अर्थात् शेष वस्त्र भी ऐसे उपयुक्त होने चाहिए जिससे मुकुट का सौंदर्य भली प्रकार से प्रकाशित हो। श्रीराम का धार्मिक जीवन यद्यपि एक आदर्श स्वरूप है, किन्तु इनके और श्रीकृष्ण के धार्मिक जीवन में बहुत अन्तर है। श्रीकृष्ण जैसे सच्चे प्रेम, रसिकता और वीरता में आदर्श माने जाते है वैसे ही सच्चे धर्मोपदेशक भी। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ जब वैदिक धर्म का बेड़ा मिध्या वैराग्य और दर्शन के भँवर में घूमता हुआ एक ओर बहा जा रहा था। धर्म अपने यथोचित स्थान से गिरा दीख पड़ता था, कभी मिथ्या वैराग्य और कभी शुष्क भ्रांतिमय दर्शन का पलड़ा भारी हो जाता था। इनको ऐसे समय में धर्मोपदेश करना पड़ा था, अतएव इनका जीवन धर्मोपदेशक का एक उच्च आदर्श था और इसलिए हम देखते है कि भारतवर्ष में कदाचित् एक भी पुरुष ऐसा नहीं, जिस पर श्रीकृष्ण की शिक्षा या उपदेश का कुछ असर न पड़ा हो-सभी श्रीकृष्ण के नाम की दुहाई देते हैं और उनके वचन को प्रमाण मानते हैं। हमारा यह कथन अत्युक्ति नहीं है कि भारत का धार्मिक आकाश इस समय भी श्रीकृष्ण के धर्मोपदेशो से प्रकाशमय दीख रहा है।

5. बीस वर्ष पहले श्रीकृष्ण के बारे में लोग क्या विचारते थे?


अभी बीस वर्ष नहीं बीते जब हम सरकारी पाठशालाओं में शिक्षा पाते थे, उस समय श्रीकृष्ण उन तमाम अपवित्र बातों का कर्ता माने जाते थे जो कृष्णलीला या रासलीला में दिखाई जाती है। उस समय श्रीकृष्ण हमारी दृष्टि में तमाशबीन, विषयी, और धूर्त दीख पड़ते थे और हम विचारते थे कि भारतवासी मात्र की सामाजिक निर्बलता इन्हीं की अश्लील शिक्षा का फल है। आर्य धर्म के विपक्षियों ने श्रीकृष्ण के विषय में ऐसी-ऐसी गप्पें उड़ा रखी थीं जिससे हमारे हृदय में उनके लिए सम्मान के भाव का उदय होना तो दूर रहा हम उनके नाम से दूसरों के सम्मुख अपने को लज्जित अनुभव करते थे और भीतर ही भीतर उस पवित्रात्मा के नाम से घृणा करने लग गये थे। परन्तु जब पाठशाला से छुट्टी मिली, मुल्लाओं के पजे से जान बची, सकीर्ण और अंधकारमय कोठरी से निकलकर प्रकाशमय मैदान में आये तथा वहाँ ज्ञान रूपी वायु का झोका लगा तो दिमाग में एक विलक्षण परिवर्तन का संचार होने लगा