पहला अध्याय
कृष्ण की जन्मभूमि
"यद्यपि वृन्दावन के कुंज में जहाँ किसी समय कृष्ण गोपियों के संग क्रीड़ा किया करते थे अब
उनकी वंशी की गूँज सुनाई नहीं देती, यद्यपि यमुना की धारा प्रतिदिन गोरक्त से रँगी जाती है
तथापि यात्री के लिए वह भूमि अब भी पवित्र है। उसके लिए वह पवित्र जारडन[१] के समान
है जिसके तट पर बैठकर देशनिकाला दिया गया इसराइल नवी की प्राचीन लड़ाइयों का स्मरण
कर आँसू बहाता है।"-कर्नल टाड[२]
समय के हेर-फेर से, अँगरेजी शिक्षा से तथा नवीन वासनाओ के उत्पन्न हो जाने से भारतवर्षीय शिक्षित मंडली के मानसिक भावों और विश्वासों में चाहे कितने परिवर्तन क्यों न हुए हो पर कौन-सा हिन्दू है जिसको गंगा और यमुना ये दोनो नाम प्यारे न मालूम होते हों? अथवा जिसके चित्त में इन दोनों नामों के मुँह में आते ही या कान में पड़ते ही किसी तरह का कोई भाव उत्पन्न न होता हो? प्यारी यमुना ! क्या तु वही यमुना है जिसकी रेती में हमारे महान् पुरुष, वीर योद्धागण अपनी बाल्यावस्था में क्रीड़ा किया करते थे और जिसके तट पर कुछ बडे़ होने पर उन्होंने धनुष-विद्या सीखी थी?
यमुने ! क्या सचमुच तू वही नदी है जिसके जल ने अनाथ पांडवों के संतप्त हृदय को शान्ति दी थी और जिसके तट पर उन्होंने बड़े परिश्रम और चाहना से इन्द्रप्रस्थ बसाया था? यमुने ! क्या वास्तव में तू वहीं यमुना है जिसके किनारे के वनों को पांडवों ने काट डाला था और उन पर अनेक नगरियाँ बसा दी थीं जो बाद में आर्यों की वह राजधानी बनीं जहाँ उनकी राज्यपताका इतनी ऊँचाई से फहराती दीख पड़ती थी कि उसे सैकड़ों कोसो से देखकर उनके शत्रुओं का चित्त भी भयभीत हो जाता था? यमुने ! क्या तेरी धारा वही धारा है जिसमें कृष्ण महाराज जलक्रीड़ा किया करते थे और जिसमें गर्भवती देवकी कृष्ण जैसे पराक्रमी महान् पुरुष को प्रसव करके स्नान करने आती थी तथा स्नान करने के बाद परमात्मा से अपने बच्चे की रक्षार्थ प्रार्थना करती थी? यमुने ! हमे तुझसे इन प्रश्नो के करने की इसलिए आवश्यकता हुई है, कि काल की कुटिलता ने तेरी दशा बदल दी, दुख सहते-सहते तेरा हृदय विदीर्ण हो गया और नख से सिर तक तेरे अंग-प्रत्यंगों पर उदासी छा गई। तुर्को ने तेरी छाती पर वह-वह मूँग दले कि उनके आघातों से छाती चलनी-सी हो गई है। तेरे तट पर भाँति-भाँति के सुन्दर भवनो