उग्रसेन को फिर से गद्दी पर बिठा दिया। जो लोग कंस के अत्याचारो से डरकर देश छोड़कर चले गये थे उन सबको बुला लिया गया। सारांश यह कि सब प्रबन्ध ठीक कर कृष्ण ने अपने भाई बलराम सहित विद्या के निमित्त काशी[१] जाने का निश्चय किया।
पाठक! विद्योपार्जन के समय का बड़ा भाग तो कृष्ण और बलराम का वृन्दावन के वनो में पशुओं को चराने और वंशी बजाने में व्यतीत हुआ। उस समय उनकी प्राणरक्षा के लिए उनकी वास्तविक अवस्था छिपाना आवश्यक था। पर जब कृष्ण को अपने वंश का पता लगा तो उन्होंने कुछ विद्याध्ययन करना आवश्यक समझा क्योंकि उसके बिना अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकते थे। क्षत्रिय वंशावतंस दोनों राजकुमारो ने इस कमी को पूरा करने का संकल्प कर लिया और वही से उन प्यारे गोपों को विदा कर दिया जिन्होंने बचपन में उनकी रक्षा की थी। अपने धर्म पिता नन्द और उनके संबंधियों से बड़े हौसले से आज्ञा माँगी और अपनी धर्म माता यशोदा को ममत्व और प्रेम के भरे संदेश भेजे। इसी तरह सब साथियों से गले मिलकर विदा हुए, जिनके साथ उन्होंने कैद के दिन काटे थे और जिनकी संगति में सुख की नीद सोये थे। यह विचार मानो उस समय के राजघरानों में साधारणत: अनुकूल था। अपने धर्म का ज्ञान होते ही उन सब सम्बन्धों पर लात मार बैठे। नन्द और यशोदा का स्नेह, गोपों का प्रेम और खेल-कूद उनके चित्त को चलायमान न कर सका।
कृष्ण की शिक्षा के विषय में पुराणों से बस इतना पता मिलता है कि कृष्ण के गुरु का नाम सन्दीपन था जो अवन्तीपुर[२] नामक स्थान का रहने वाला था। पुराण कहता है कि कृष्ण ने सन्दीपन से केवल 24 दिन शिक्षा पाई और इसी अल्पकाल में वे सारी शास्त्रविद्या में निपुण हो गए। पर महाभारत में श्रीकृष्ण की शिक्षा का स्थान-स्थान पर वर्णन आया है जिससे विदित होता है कि कृष्ण अपने समय के परम विद्वान् और वेदशास्त्र के ज्ञाता भी थे। महाभारत में एक स्थान पर वर्णन है कि कृष्ण ने दस वर्ष तक तप किया था, जिससे हम परिणाम निकालते हैं कि उग्रसेन को मथुरा की गद्दी देकर श्रीकृष्ण ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके दस वर्ष पर्यन्त केवल विद्या का उपार्जन ही करते रहे।
- ↑ हम नहीं कह सकते कि कृष्ण के समय वर्तमान काशी या बनारस को वही गौरव प्राप्त था जो उसे पौराणिक समय में मिला। प्राचीन ग्रन्थों में काशी का वर्णन आया है पर हमारे पास उसका कोई प्रमाण नहीं कि उससे तात्पर्य इसी 'शहर बनारस' का है। पुराणों के विरचित होने के समय तो काशी अपनी पूर्ण उन्नति की चोटी पर पहुंचा हुआ था। इसलिए संभव है कि उन पुराणों के रचयिता पण्डितों ने अपने जमे हुए विचार के अनुसार यह लिख दिया हो कि श्रीकृष्ण भी हो न हो विद्योपार्जन के लिए काशी ही गए। पर यथार्थ तो यह जान पड़ता है कि वह विद्या के निमित्त काशी नहीं गए।
- ↑ वर्तमान उज्जैन