पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/८१

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चौदहवाँ अध्याय
खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण

महाभारत से मालूम होता है कि पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ से कुछ दूरी पर एक सुन्दर वन था जिसको खांडवप्रस्थ कहते थे। इसमें बनैले पशुओं के अतिरिक्त अनेक असभ्य जातियाँ निवास करती थीं जिनको उस समय तक किसी ने नहीं जीता था। यह वन बहुत बड़ा था। इस वन में रहने वाली जातियाँ बड़ी वीर और लड़ाकू थी। पाण्डवों को उस वन का अधिकार देने में धृतराष्ट्र की यही नीति थी कि इस पर स्वत्व जमाने में या तो स्वयं पाण्डवगण अपने प्राण नष्ट कर देंगे या उनको मारकर एक ऐसे प्रदेश को राज्य में मिला देंगे, जिसे उनके पहले कोई भी अपने अधीन नहीं कर सका था। वास्तव में धृतराष्ट्र की यह अनीति और अन्याय था कि अपने पुत्रों को तो अच्छी बस्ती और उपजाऊ भूमि दे और पाण्डवों को पथरीला और उजाड वन मिले। धर्मवीर युधिष्ठिर स्वयं पर धृतराष्ट्र का इतना प्रभाव मानते थे कि उसने इस बात पर तनिक भी आशंका नहीं की और प्रसन्न चित्त होकर इस प्रान्त को अंगीकार कर लिया। पाँचो भाइयों में इतना प्रेम था, कि किसी ने भी युधिष्ठिर के स्वीकार करने पर नाक भों नही चढायी। बात भी सत्य है, जब युधिष्ठिर स्वीकार कर चुका तो उसके छोटे भाई जो उसके आज्ञाकारी थे, कैसे शंका करते? जब वह भाग विभाजित हुआ तो कृष्ण (जो द्रुपद के यहाँ से पाण्डवो के साथ आये थे) यहाँ उपस्थित थे। उन्होने पाण्डवों को यह कहकर शान्त कर दिया कि भाइयों में परस्पर विग्रह न भड़कने पावे।

स्मरण रखना चाहिए कि पाण्डव उनके फुफेरे भाई थे। पिता की गद्दी पर उनका पूरा स्वत्व था, पर धृतराष्ट्र के अन्याय के कारण वे मारे-मारे फिरते थे। अन्त में जब उन्हें पृथक् राज्य दिया भी गया, तो ऐसा जिसे स्वत्व में लाने में उन्हें अपनी ही जान,..बचाना मुश्किल था। द्रौपदी के स्वयंवर में उनकी अवस्था देखकर कृष्ण ने ठान लिया था कि उनको उनका अधिकार दिलवा दिया जाये। हस्तिनापुर आकर उनकी भलाई के लिए उन्हें यही हितकर दीख पड़ा कि इसके लिए वे बहुत जोर न दें और जो कुछ धृतराष्ट्र ने दिया है, उसे स्वीकार कर ले। इन्हीं कारणों से जब पाण्डवों ने खांडवप्रस्थ का लेना स्वीकार कर लिया तो कृष्ण ने उनका साथ दिया! उस वन को काटने तथा वसाने में उनकी सहायता की।, यहाँ तक कि वे तब तक द्वारिका नहीं गए जब तक इन्द्रप्रस्थ अच्छी तरह बस नहीं गया और पाण्डवों की वहाँ पूरा अधिकार नहीं जम गया।

पाठक गण! आप समझ गये होंगे, कि सुभद्रा के विवाह के विषय में कृष्ण ने क्यों अर्जुन का पक्ष लिया था? उनकी हार्दिक इच्छा थी कि अर्जुन के साथ ऐसा संबंध दनाया जाय जिसमें