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82 / योगिराज श्रीकृष्ण
 


बँधकर सारे यादववंशी पाण्डवों की सहायता करने पर विवश हो जाये। इसलिए उन्होंने ऐसी युक्ति लगाई जिससे अर्जुन और सुभद्रा का विवाह हो ही गया।

कृष्ण के वंश से यों संबंध हो जाने से पाण्डवों को बड़ा सहारा मिला और सारे आर्यावर्त मै उनकी प्रतिष्ठा बढ़ गई। शत्रु भी उनके भय खाने लगे। दुर्योधन को भी लगा कि कृष्ण और उनके यादव वीर पाण्डवों की पीठ पर हैं। इसके अतिरिक्त इस संबंध से उनका एक अभिप्राय यह भी था कि वे अपने शत्रु जरासंध से बदला लेने में अर्जुन आदि से सहायता लेना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि पाण्डव उनका उपकार मानकर जरासंध के नाश मे स्वयमेव उनकी सहायता करें। कृष्ण की युक्ति फलदायक हुई और ऐसा ही हुआ। इनमें परस्पर ऐसा प्रेम बढ़ा कि कृष्ण प्राय: सब लड़ाइयों में पाण्डवों का साथ देने लगे। ऐसा जान पड़ता है कि जब सुभद्रा का दहेज लेकर कृष्ण इन्द्रप्रस्थ गये तो अर्जुन ने उन्हें वहाँ रोक लिया। फिर दोनो ने यह पक्का किया कि वे खाडवप्रस्थ की जंगली जातियों को जीतकर युधिष्ठिर का राज्य बढा दें और जंगल को काटकर अथवा जलाकर सारे स्थान को उपजाऊ बना दे। आदि पर्व के 224वें अध्याय से लेकर पर्व की समाप्ति तक आलंकारिक शैली में इन्ही युद्धों का दर्शन है। इन अध्यायों के पढ़ने से मालूम होता है कि इस वन मे पिशाच, राक्षस, दैत्य, नाग, असुर, गन्धर्व, यक्ष और दानव आदि अनेक असभ्य जादियाँ बसी हुई थीं जिनके साथ अर्जुन और कृष्ण को बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। इनमें विजयी होने से सारे आर्यावर्त में पाण्डवों का सिक्का बैठ गया, क्योंकि उस समय तक किसी राजा-महाराजा को यह हौसला नहीं हुआ था कि इनसे लडाई लड़कर इनको वशीभूत करें। एक ओर तो इन जातियो ने पाण्डवों के सैनिक बल का डका बजा दिया, दूसरी ओर महाराज युधिष्ठिर के न्याय और नीति की धूम मच गई। वेदविद्या के ज्ञाता युधिष्ठिर ने इस योग्यता से प्रबन्ध मर्यादा को स्थापित कर दिया जिससे सारे देश मे उनका यश फैल गया। सारे देश की प्रजा यही चाहने लगी कि वह भी युधिष्ठिर की प्रजा बनकर उसके धार्मिक व्यवहार से लाभ उठावें।

इसका परिणाम यह हुआ कि एक-एक करके अनेक प्रान्त उसके राज्य में मिलते चले गये। बहुतों को उसके भाइयों ने जीतकर मिला लिया और बहुत-से सन्धि और मेल से वश मे आ गए। सारांश यह कि थोड़े ही काल में महाराज युधिष्ठिर का राज्य दूर-दूर तक फैल गया और सारे देश में कोई ऐसा राजा-महाराजा न रहा, जो सैनिकबल, सींप्रयता और सुप्रबन्ध मे युधिष्ठिर की बराबरी कर सके अथवा जिस देश और जिसकी प्रजा ऐसे सुख में हो, जैसी कि युधिष्ठिर के राज्य में थी। खांडवप्रस्थ के किसी युद्ध में अर्जुन ने मय नामक एक पुरुष को जीवनदान दिया था। इस युद्ध की समाप्ति पर जब अर्जुन और कृष्ण इन्द्रप्रस्थ लौट आए तो मय उनके पास आकर बोला कि इस जीवनदान के प्रतिकार में मुझे आपकी कुछ सेवा करनी चाहिए। अर्जुन बोला, "मैंने तुम्हारी जान बचाई है इसलिए मैं तुमसे उसके बदले में कुछ नही ले सकता। तुम स्वतंत्र हो, जहाँ चाहो जाओ और प्रसन्न रहो।' मय इसके उत्तर में बहुत आग्रह करने लगा और बोला, “हे पाण्डुपुत्र, यद्यपि आपको यही उचित था जो आपने कहा, पर आपकी कुछ सेवा करने की मुझे उत्क्ट कामना है। मैं चाहता हूँ कि आपकी कोई सेवा