पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/८४

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पंद्रहवाँ अध्याय
राजसूय यज्ञ

जब युधिष्ठिर का शासन और पाण्डवों का राज्य अपनी उन्नति के शिखर पर जा पहुँचा और पाँचों भाइयों ने अपने बाहुबल से सारे राजा-महाराजाओं को अपने अधीन कर लिया तो चारों दिशाओं में पाण्डवों की तूती बोलने लगी। कोई भी उनकी बराबरी का दावा नहीं कर सका। उनका राजकोष धन-सम्पदा से परिपूर्ण हो गया। सेना की भी यही दशा थी कि देश के शूरवीर सब आ-आकर इनकी सेना में भरती हो गये। इनकी राजसभा और राजप्रासाद ऐसे थे जैसे अन्यत्र कहीं नहीं थे। ऐसी दशा में युधिष्ठिर और उसके भाइयों की यह इच्छा[१] हुई कि राजसूय यज्ञ करके महाराजाधिराज की उपाधि ग्रहण की जाये। जब महाराज ने यह इच्छा प्रकट की तो सारे धनिक वर्ग, मंत्रिपरिषद, पंडितो एवं विद्वानों ने इसका अनुमोदन किया और कहा कि आप प्रत्येक प्रकार से इस यज्ञ के करने की सामर्थ्य रखते हैं। पर फिर भी युधिष्ठिर को संतोष नहीं हुआ और उसने इसका अन्तिम निर्णय कृष्ण की सम्मति पर रखा तथा कृष्ण को बुलाने के लिए दूत भेजा। जब वे आये तो युधिष्ठिर उनकी ओर देखकर कहने लगा, "हे कृष्ण! मेरे चित्त में राजसूय यज्ञ करने की इच्छा उत्पन्न हुई है, पर मेरी इच्छा मात्र से तो यह यज्ञ पूरा नहीं हो सकता। आप जानते हैं कि यह यज्ञ कैसे किया जाता है। केवल वही पुरुष इसे कर सकता है जिसकी शक्ति और बल असीम हो, जिसका राज्य सारी पृथ्वी पर हो और जो समस्त राजाओं का राजा हो। मुझे सब लोग इस यज्ञ के करने की सम्मति तो देते हैं, पर मैंने सारी बातों का निर्णय आप पर रखा है। कोई तो केवल संकोच से मुझे इस बात की सम्मति देते है और उसकी कठिनाइयों का विचार नहीं करते। कोई अपने लाभ के विचार से ऐसी सम्मति देते हैं और कोई अन्य मुझे प्रसन्न करने के लिए कहते हैं। पर आप इन बातों से ऊपर हैं। आपने काम और क्रोध को जीत लिया है अतः आपकी राय ही सर्वोपरि होगी। अब आप मुझे ऐसी सम्मति दें जिससे संसार का और मेरा भला हो।"

श्रीकृष्ण ने इस पर उत्तर में कहा, "हे राजन्! आप सब कुछ जानते हैं और प्रत्येक प्रकार से इस यज्ञ के करने के योग्य हैं, परन्तु तो भी जो कुछ मेरी समझ में आता है वह निवेदन करता हूँ।

 

  1. महाभारत में इसकी कथा इस प्रकार है कि एक दिन नारद ऋषि युधिष्ठिर के दरबार में आये और उन्हें महाराज हरिश्चन्द्र की कथा सुनाकर कहा कि किस प्रकार हरिश्चन्द्र ने राजसूय यज्ञ किया और उन्हें महाराज इन्द्र के दरबार में आसन मिला। यह सुनकर युधिष्ठिर को भी यह यज्ञ करने की इच्छा हुई।