पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/८३

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खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण / 83
 

करके अपनी प्रवीणता दिखाऊँ, क्योंकि मैं अपने को इस समय का 'विश्वकर्मा'[१] मानता हूँ।"

अर्जुन ने उत्तर दिया, "हे मय! मेरा सिद्धान्त है कि मैंने तेरी जान बचाई इसलिए तुझसे बदले में कुछ न लूँ, पर यदि तेरी इच्छा कुछ दूसरी है तो तू कृष्ण की कुछ सेवा कर दे। इसी से मैं संतुष्ट हो जाऊँगा।"

यह सुनकर मय कृष्ण से आग्रह करने लगा। अन्त में कृष्ण ने कहा, "हे मय! यदि तू मेरे लिए कुछ करना चाहता है तो राजा युधिष्ठिर के लिए एक ऐसी राजसभा (महल) बना, जो संसार में अपने आपमें आदर्श हो और जैसी दूसरी कोई और न बना सके।"[२]

मय ने विनयपूर्वक इस आज्ञा को पूरी करने का निश्चय किया और कुछ काल में ऐसे विशाल और सुन्दर राजभवन का निर्माण किया जिसे देखकर सारे राजा-महाराजा आश्चर्य में पड़ गए और मय के बुद्धिकौशल पर वाह-वाह करने लगे।

 

  1. सृष्टि के रचने के कारण परमेश्वर विश्वकर्मा कहा जाता है, पर इस शब्द का अर्थ आजकल इंजीनियर से है।
  2. इस प्रासाद का वर्णन करते हुए महाभारत में लिखा है कि इसका क्षेत्रफल 5 हजार हाथ का था। इसमें सुनहरी झरने थे और सारा महल मोतियों की चमक से ऐसा जगमगाया करता था जिसके सामने सूर्य का तेज मन्द दीख पड़ता था। इसके पश्चात् एक जलाशय का वर्णन करते हैं जिसका जल ऐसा स्वच्छ था कि नीचे की भूमि दिखाई देती थी। इधर-उधर संगमरमर की सीढ़ियाँ थी जिनमें हीरे और दूसरे बहुमूल्य पत्थर जड़े हुए थे। चारो ओर बड़े-बड़े वृक्ष थे। इनसे सटा हुआ एक बनावटी जंगल बनाया गया था। इस महल की प्रतिष्ठा के यज्ञ के दिन 500 ऋषि और मुनि उपस्थित थे और देश देश के राजा-महाराजा आये थे। राजाओं को इस नामावली में हम मद्रास (आज का तमिलनाडु) कलिंग बंगाल कन्नौज अन्धक और मगध आदि देश के राजाओं के नाम पाये हैं।