पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/८६

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86/ योगिराज श्रीकृष्ण
 


जाती है कि उसने क्षत्रियों के 100 कुलों को पराजित किया है और कोई उसका सामना नहीं कर सका। वह अत्यन्त अभिमानी है। जो राजा हीरे और मोती धारण करते है वे उन्हें उसे भेट करते हैं तो भी वह प्रसन्न नहीं होता, क्योकि वह आरम्भ से ही दुःशील है। सबसे बड़ा कहलाकर भी वह अपने अधीन राजाओं पर अत्याचार करता है और सबसे कर लेता है। किसी की सामर्थ्य नहीं, जो उसका सामना कर सके। उसके बन्दीगृह में पड़े हुए अनेक राजा अपने जीवन के दिन काट रहे हैं। तथापि हे महाराज! यह याद रखना चाहिए कि रणक्षेत्र में वीर गति पाने वाला क्षत्रिय सीधा स्वर्ग को जाता है। इसलिए हम सब मिलकर जरासंध से युद्ध करें। 86 राजघरानो को वह मिट्टी में मिला चुका है। 100 घरानों में अब केवल 14 बचते है। जब ये 14 भी उसके अधीन हो जायेंगे तो वह नरमेध यज्ञ आरम्भ करेगा। जो पुरुष उसको इस काम से रोकेगा उसका पराभव होगा। इसलिए जो जरासंध का दमन कर सकेगा वही राजाओं का महाराजा और राजसूय यज्ञ करने का अधिकारी होगा।"

महाराज कृष्ण के कथन को सुनकर युधिष्ठिर कहने लगे, "हे कृष्ण, यह कैसे हो सकता है कि मै चक्रवर्ती राजा की पदवी के लालच में आकर तुमको जरासंध से लड़ने के लिए भेजूं? अर्जुन और भीम मेरे दोनों नेत्रों के समान हैं और आप हे कृष्ण, मेरे हृदय रूप हो। यदि मुझसे मेरे नेत्र और मेरा हृदय पृथक् कर दिया जावे, तो मैं किस प्रकार जीवित रह सकता हूँ? जरासंध की सेना को तो यमराज भी लड़ाई में हरा नहीं सकते। तुम या तुम्हारी सेना क्या चीज है। मुझे तो इस काम में भलाई नहीं दिखाई देती। ऐसा न हो कि परिणाम और का और ही हो जाये। इसलिए मेरी सम्मति है कि इस काम में हाथ न डाला जावे। हे कृष्ण! मेरी समझ में इससे अलग रहना ही बुद्धिमानी है, क्योंकि इसका पूरा होना अत्यन्त कठिन है।"

यह सुनकर अर्जुन बोला, “हे राजन्! क्षत्रिय का धर्म है कि वह अपने बाहुबल से शत्रुओ का हनन करे तथा सदा अपना यश और अपना प्रसार बढ़ाता रहे। क्षत्रिय के गुणों में शूरता सबसे बढ़कर है। वीरों के कुल में जन्म लेकर जो कायर हुआ, वह घृणा के योग्य है। विद्वानो के समीप मनुष्य के लिए कुलीन वंशज होना यद्यपि सबसे बढकर है परन्तु यदि कोई वीर ऐसे वश में जन्म ले, जिसे वीरों के जन्म देने का पहले सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था तो समझना चाहिए कि वह उससे भी बढ़कर है, जिसने वीरों के वंश में जन्म लिया है। वीर सदा अपने शत्रु पर जय पाता है। परन्तु जो पुरुष वीरता के भरोसे असावधानी से काम करता है वह सदा सफल नहीं होता। इसी से वीर या बलवान पुरुष कभी-कभी बलहीन के हाथों मारे जाते है। जैसे बलहीन पुरुष नीचता का शिकार हो जाता है, उसी तरह कभी-कभी बलवान अपनी मूर्खता से मारा जाता है। इसलिए जो राजा विजयी होने की इच्छा रखे, उसे इन दोनों बातों से बचना चाहिए। इसलिए हे राजन्! यदि हम राजसूय यज्ञ करने के लिए जरासंध का वध करें और उसके बन्दियों को छुटकारा दें, तो इससे अच्छा दूसरा काम और क्या हो सकता है। पर भय से यदि हम इस काम से भागे तो इससे हमारी मूर्खता और कायरता ही सिद्ध होगी और लोग हमें दायर कहेंगे इसलिए हे राजन्। आप लोगों को हमारे उपहास का अवसर न दे"