पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/८७

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राजसूय यज्ञ /87
 


फिर कृष्ण बोले, "अर्जुन ने ठीक वही कहा है, जो एक भरत सन्तान और कुन्तीपुत्र को कहना चाहिए। यह जीवन स्वप्नवत् है। इसका भरोसा नही कि किस समय मृत्यु आ धेरे। हमने यह भी नहीं सुना है कि लड़ाई से अलग रहने से जीवात्मा को अमरत्व प्राप्त हो जायगा! अतएव प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि शास्त्रों के अनुसार अपने शत्रु पर चढ़ाई करे क्योंकि इसी से उसे शांति मिलती है। जो पुरुष बुद्धिमानी से काम करता है उसको (यदि उसके पिछले कर्म खोटे नहीं है) निश्चय ही सफलता मिलती है। यदि दोनों के कर्म अच्छे हैं और दोनो विचार कर चलते है तब भी एक की जीत होगी और दूसरे की हार। परन्तु जो बिना विचारे चलेगा वह अवश्य हारेगा! और यदि दोनों मूर्ख हैं तब भी आवश्यक है कि एक सफल हो, क्योंकि दोनों जीत नहीं सकते। इसलिए हम क्यों न बुद्धिमानी से शत्रु पर चढ़ाई करें। जल का वेग बड़े-बड़े वृक्षों को जड़ से उखाड़ देता है। जरासंध के वीर और प्रतापी होने में कुछ सन्देह नही, पर क्या डर है? यदि हम भी अपने संबंधियों के लिए उससे युद्ध ठानें, या तो हम युद्ध में उसे मारेंगे या स्वयं लड़ाई में मर सीधे स्वर्ग का रास्ता लेंगे।"

जब युधिष्ठिर ने देखा कि भीम, अर्जुन और कृष्ण सब इस लड़ाई के लिए बद्धपरिकर है तो कृष्ण से उसने जरासंध का इतिहास पूछा। कृष्ण ने सारा वृत्तान्त सुनाकर अन्त में कहा कि जरासंध के बड़े-बड़े योद्धा जिन पर उसे बड़ा भरोसा था, वे सब मर गये है। इसलिए अब समय आ पहुँचा है कि उसका नाश किया जावे। किन्तु सीधी लड़ाई मे उस पर विजयी होना संभव नहीं है। हमारा विचार है कि उससे मल्लयुद्ध करके उसका वध किया जावे! आप मेरी नीति और भीम के बल पर विश्वास रखें। अर्जुन हम दोनों की रक्षा करेगा। हमारा तो विश्वास है कि हम तीनों मिलकर अवश्य उसको मार डालेंगे।

जब हम तीनों उसके पास जायेंगे तो यह अनिवार्य होगा कि वह हममें से किसी एक से लड़े। वरन् उसके अभिमान का विचार कर कहना पड़ता है कि वह भीम से ही लड़ने को तैयार होगा। बस फिर क्या है, जिस तरह मृत्यु दंभी पुरुष का विनाश कर देती है उसी तरह भीमसेन जरासंध का वध कर डालेगा। यदि आप मेरे भीतर की बात पूछते हैं या आपको मुझमें कुछ भी श्रद्धा है तो आप अब तनिक भी देर मत कीजिए और अर्जुन और भीम को मेरे साथ कर दीजिए। युधिष्ठिर इस उचित परामर्श को कैसे ठुकराता। कृष्ण की अन्तिम अपील ने युधिष्ठिर को पिघला दिया और उन्होंने नम्रतापूर्वक कृष्ण का हाथ चूमा और गद्गद होकर कहने लगे, "किसकी सामर्थ्य है जो कृष्ण और अर्जुन का सामना कर सके, पुन: जब भीम उनके साथ है। प्रत्येक चढ़ाई की सफलता सेनापति की बुद्धिमत्ता पर निर्भर होती है। जिस सेना का आधिपत्य कृष्ण के हाथ में हो, उसकी सफलता में क्या संदेह है? इसलिए अर्जुन! तुम्हें उचित है कि तुम कृष्ण मे श्रद्धा रखकर उनको अपना नेता मानो और भीम को भी चाहिए कि वे अर्जुन के तेज को अपना अग्रगामी बनायें।"

जहाँ नीति, तेज और शूरता ये तीन गुण एकत्र हो जाते हैं, वहाँ सफलता हाथ जोड़कर खड़ी रहती है।