सत्रहवाँ अध्याय
राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका
राजा जरासंध पर जय प्राप्त करके कृष्ण आदि महाराज युधिष्ठिर की राजधानी में लौट आये। युधिष्ठिर ने यथायोग्य उनका सम्मान किया और गद्गद हो कृष्ण को गले से लगाया। अब यज्ञ की तैयारियाँ होने लगीं। सभामंडप बड़ी धूमधाम से सजाया गया। राजा-महाराजाओं के पास दूत भेजे गये। भोजन आदि का पूरा प्रबन्ध किया गया। दूर-दूर से वेदपाठी विद्वान् ब्राह्मण निमंत्रित हुए। हवन की सामग्री में बहुमूल्य सुगन्धी वाले पदार्थ मँगाये गये। दान देने के लिए सोना, चाँदी, रत्न तथा वस्त्राभूषण एकत्र किये गये। अतिथियो के निवास के लिए सुन्दर महल सजाये गये और कोसों तक डेरे तथा तंबू लगाये गये।
धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, द्रोण, दुर्योधन, कर्ण तथा दूसरे भ्रातृगण एकत्रित हुए।[१]
अब जब तैयारियाँ पूरी हो गई तो भाई-बन्धुओं में से यज्ञ के कार्यकर्ता नियत किये गये। श्रीकृष्ण ने अपने लिए यह काम स्वीकार किया कि जो ब्राह्मण यज्ञ कराने के लिए यज्ञशाला में आयेंगे उनके चरण धो देंगे और यज्ञशाला पर पहरा भी देंगे। इस प्रकार जब सब तैयारियाँ समाप्त हुईं और यज्ञ के प्रारम्भिक कृत्य होने लगे तो अब यज्ञकर्ता की ओर से सभी अतिथियों को भेंट देने का समय आया।[२] इस विषय में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा, "हे युधिष्ठिर! अतिथियों को भेंट देने का समय आ पहुँचा है। अब तुम्हें उचित है कि प्रत्येक को यथायोग्य भेंट प्रदान करो। छः प्रकार के पुरुष तुमसे इस सम्मान को पाने के अधिकारी हैं (1) गुरु, (2) यज्ञ करने वाले पंडित, (3) सम्बन्धी, (4) स्नातक ब्राह्मण, (5) मित्र, (6) राजे-महाराजे। सबसे पहले उस पुरुष के सामने भेंट रखो जिसे तुम इस सारी सभा में श्रेष्ठ समझते हो।" मुख से कह देना या लेखनी से लिखना तो सहज है, पर ऐसी प्रतिष्ठित सभा में जहाँ विद्वान् और वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण और शूरवीर क्षत्रिय राजा-महाराजा बैठे थे, वहाँ यह निर्णय करना बड़ा कठिन था कि कौन इन सबमें श्रेष्ठ और सबसे अधिक गौरव का पात्र है
- ↑ जिन राजा-महाराजाओं के नाम महाभारत में, राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने की सूची में दिये हैं, उनसे ज्ञात होता है कि इस यज्ञ में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजा सम्मिलित थे। दक्षिण के द्रविड़ और सिंहल के राजाओं के नाम भी उस सूची में लिखे हैं। उत्तर दिशा में काश्मीर, पूर्व दिशा में बंग (बंगाल) और पश्चिम दिशा में मालव, सिन्ध इत्यादि का
- ↑ प्राचीन आर्यावर्त में यह रीति थी कि प्रत्येक धार्मिक कार्य के आरम्भ में कार्यकर्ता ऐसे पुरुषों को जो आदर-सत्कार के अधिकारी होते थे 'अर्घ्य' दिया करते थे। यह 'अर्घ्य' चंदन, फूल, फल इत्यादि में तैयार किया जाता था। हमनें 'अर्घ्य' का जगह 'भेंट' शब्द का प्रयोग किया है।