प्रत्येक हिन्दू इस बात को भली प्रकार जानता है कि राजसूय यज्ञ की समाप्ति पर दुर्योधन और उसके पक्ष वालों ने धूर्तता से महाराज युधिष्ठिर को जुआ खेलने पर तत्पर करके उनसे उनका सारा राजपाट छीन लिया। यहाँ तक कि उसने अपनी पत्नी और स्वयं को दाँव पर लगा दिया तथा यह दाँव भी हार गया। इसके पश्चात् दुःशासन का द्रौपदी को घसीटकर सभा में लाना, द्रौपदी का विलाप करना, और सभा में कोलाहल मचना इत्यादि वे घटनाएँ ऐसी हैं जिनका कृष्ण के जीवन से कोई संबंध नहीं है। यहाँ इतना कह देना पर्याप्त होगा कि अन्त में महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा से पाण्डवगण द्रौपदी सहित बारह वर्ष के लिए देश से निकाले गये और अपना शहर छोड़ वन में विचरने लगे। जब इनके भाई-बन्धु तथा इष्ट मित्रों को इस विपत्ति का समाचार मिला तो वे एक-एक करके इनसे मिलने और सहानुभूति प्रकट करने के लिए आने लगे। महाराज कृष्ण ने जब यह वृत्तान्त सुना तो वे बड़े दुखित हुए और बहुत-से साथियों को लेकर इनसे मिलने को चले।
युधिष्ठिर और अर्जुन इत्यादि की बुरी दशा देखकर वे बड़े क्रुद्ध हुए, पर जब द्रौपदी के सामने गये तो उसने विलाप के द्वारा पृथिवी-आकाश एक कर दिये। वह रो-रोकर अपने पति और दूसरे सम्बन्धियों को बुरा-भला कहने लगी। उसने अपने अपमान की कथा सुनाकर भीम और अर्जुन की वीरता पर आक्षेप किया और अन्त में यहाँ तक कह दिया कि मेरे लिए तो ये सब संबंधी और मित्र मर ही गये, क्योंकि जब शत्रुओं ने भरी सभा में मेरा अपमान किया तो किसी ने मेरी सहायता नहीं की।
द्रौपदी के इस विलाप को सुनकर कृष्ण ने उसके समक्ष प्रतिज्ञा की, "हे कृष्णा! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि तेरे शत्रुओं से इस अनीति का बदला लूँगा, तुझे तेरा राजपाट पुन: दिलाकर राजसिंहासन पर बिठाऊँगा। हे द्रौपदी! तू रो मत। चाहे आकाश टूट पड़े, धरती फट जावे, पर मेरा प्रण मिथ्या न होगा।"
इस प्रकार उसे सम्बोधन कर कृष्णचन्द्र महाराज युधिष्ठिर के पास आये और उनको बहुत कुछ उपदेश किया। वे उनके समक्ष जुआ खेलने की हानि बताते रहे।