धृतराष्ट्र ने जब युधिष्ठिर को जुए में पराजित होने के कारण बारह वर्ष का देशनिकाला दिया तो उसके साथ यह भी बन्धन लगाया था कि तेरहवें वर्ष में पाण्डुपुत्र वेष बदलकर ऐसी सेवावृत्ति से पेट भरेंगे ताकि दुर्योधन और उसके साथियो को उनका पता न लगे। बारह वर्ष का देशनिकाला समाप्त हो जाने पर पाँचों पांडवों ने द्रौपदी और अपने पुत्रों सहित महाराज विराट के यहाँ नौकरी कर ली। उन्होंने ऐसी युक्ति से अपने को छिपाया कि बारह महीने तक विराट को पता ही नहीं लगा कि उसके किकरों में पाँच क्षत्रिय कुल भूषण वचनबद्ध होकर उसकी सेवाटहल कर रहे है। उधर दुर्योधन को बहुत खोज करने पर भी उनका कुछ पता न चला। देशनिकाले के दिनों में इनके भाई-बन्धु इनसे भेंट करने आते और इनकी सहायता करते थे। कृष्ण और उनके भाई बलराम भी इनके पास कई बार आये और बहुत दिनों तक उनके साथ रहे। एक बार बलराम ने यह प्रस्ताव किया कि युधिष्ठिर इत्यादि अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वनवास मे रहें पर उनके सम्बन्धी और मित्रगण दुर्योधन पर चढ़ाई करके उससे उनका देश लौटा लें और उसे अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु को प्रवन्ध के लिए सौंप दें। कृष्ण ने उत्तर में निवेदन किया कि जो कुछ आप कहते है वह सम्भव तो है पर पाण्डवों को यह कब स्वीकार होगा कि वे दूसरे के परिश्रम का फल खुद भोगें और इस प्रकार अपने क्षत्रिय धर्म पर बट्टा लगायें।
कृष्ण के इस कथन पर युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुआ और कहने लगा कि मुझे राज्य की इतनी इच्छा नही जितना धर्म का आग्रह है। यदि मुझे स्वर्ग का राज्य भी मिले तो भी मैं सचाई से नहीं हट सकता। थोड़े से जीवन के लिए मैं अपना प्रण भंग नहीं कर सकता।
युधिष्ठिर और उसके भाइयों ने बड़े कष्ट उठाये और विपत्ति तथा आपदाओ को सहन किया। अपनी प्रिय धर्मपत्नी का अपमान भी अपनी आँखों से देखा। निम्न समझी जाने वाली सेवा करना पसन्द किया, पर अपने वचन का पूरे तौर से निर्वाह किया और तेरह वर्ष तक राजपाट की ओर ध्यान तक न किया।
प्रिय पाठक! लीजिए तेरहवाँ वर्ष समाप्त होता है, और महाभारत युद्ध की नींव पड़ने लगती है। आइये, इस महान् युद्ध की कथा सुनिये। इस लड़ाई का प्रथम दृश्य आज महाराज विराट के महलों में दिखाई दे रहा है। भारतवर्ष के विख्यात राजा-महाराजा और विद्वान् ब्राह्मण यहाँ एकत्र हैं और सोच-विचार कर रहे हैं कि युधिष्ठिर का राज्य उसे दिलाने के लिए अब क्या कार्यवाही करनी चाहिए। इस सभा को युद्ध-समिति कहें, राजनीतिक परिषद् कहे या धर्मसभा कहें आपकी जो इच्छा से अप इसका नाम रखें क्योंकि इसमें सभी पदों के कुछ