पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/९८

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बीसवाँ अध्याय
दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन

महाराज विराट के महल में जो सभा हुई उसकी सूचना दुर्योधन को भी पहुँच गई जिस पर उसने विचार किया कि किसी प्रकार कृष्ण को पाण्डवों की सहायता करने से रोकना चाहिए। अतएव वह द्वारिकापुरी की ओर चला। उसने यह सोच लिया था कि यदि मेरी प्रार्थना स्वीकृत हो गई तो यह समझना चाहिए कि मैंने युधिष्ठिर के दो बलवान सहायकों को कम कर दिया। दूसरी ओर यदि मेरी प्रार्थना स्वीकार न की गई तो मुझे कृष्ण से सदा के लिए यह शिकायत बनी रहेगी कि यद्यपि मै ही पहले सहायता का प्रार्थी हुआ था, पर उन्होंने मेरी सहायता नहीं की और मेरे विरुद्ध लड़े। पर संयोग ऐसा बना कि जिस दिन दुर्योधन द्वारिका पहुँचा उसी दिन अर्जुन भी वहाँ पहुँच गया। जिस समय दुर्योधन कृष्ण के महल में पहुँचा उस समय कृष्णचन्द्र सो रहे थे। दुर्योधन उनके सिरहाने एक आसन पर बैठ गया। इतने में अर्जुन भी वहाँ आ पहुँचा और उनके पैताने बैठा। जब कृष्ण जगे तो उठते ही उनकी दृष्टि अर्जुन पर पड़ी। जब दूसरी ओर देखा तो दुर्योधन को भी सिरहाने बैठा पाया। दोनों ओर से जब कुशल-क्षेम पूछी जा चुकी तो महाराज दुर्योधन बोले, "हे कृष्ण, मैं तुमसे पाण्डवों के विरुद्ध युद्ध में सहायता माँगने हेतु आया हूँ। मैं पहले आया हूँ इसलिए पहले मेरी प्रार्थना स्वीकार करनी चाहिए। हम दोनो का आपसे समान संबंध है और हम दोनों ही आपके मित्र हैं। ऐसी दशा में मेरी प्रार्थना पहले की गई और वह आपके द्वारा स्वीकृत होनी चाहिए।"

इस पर कृष्ण बोले, “हे दुर्योधन! तुमने जो कहा वह सत्य है। यद्यपि तुम पहले आये पर मेरी दृष्टि तो पहले अर्जुन पर ही पड़ी। इसके अतिरिक्त अर्जुन तुम से छोटा है। मुझे दोनों की ही सहायता करनी है। एक ओर मेरी सारी सेना है और दूसरी ओर मैं अकेला बिना किसी शस्त्र के हूँ। मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया है कि इस लड़ाई में मैं शस्त्र नहीं चलाऊँगा। अब मै पहले अर्जुन को अवसर देता हूँ कि वह इनमें से एक को चुन ले कि क्या वह मेरी सारी सेना को लेना पसन्द करता है या मुझे। यदि उसने मुझ अकेले की सहायता चाही तो मेरी सारी सेना तुम्हारी सहायता को प्रस्तुत है और यदि उसने मेरी सेना पसन्द की तो मैं अकेला तुम्हारी सेवा करने को उपस्थित हूँ। दुर्योधन ने इस बात को पसन्द किया! इसलिए जब अर्जुन से पूछा गया तो उसने उत्तर दिया कि मुझे महाराज कृष्णचन्द्र की ही सहायता चाहिए। मुझे उनकी सेना नहीं चाहिए। अर्जुन के ऐसा कहने पर दुर्योधन भीतर ही भीतर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कृष्णचन्द्र की सारी सेना सहायता के लिए ले जाना स्वीकार कर लिया। बलराम के साथ भी दुर्योधन ने वही चाल चली पर उन्होंने कहा कि मैं किसी पर