पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/१००

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कर्म होता जिससे परम सत्य तथा बाह्य जीवनके बीच सुदृढ़ सम्बन्ध और फिर दोनोंकी एकता स्थापित हो । कर्म दो प्रकारका हो सकता है-एक वह कर्म जो साधनाके लिये प्रयोगका क्षेत्र है जिसमें पुरुष और उसके कर्म क्रमसे अधिकाधिक सामञ्जस्यको प्राप्त हों और दिव्य बने, और दूसरा वह कर्म जो भागवत अनुभूतिकी अभिव्यक्ति है । पर इस पिछले कर्मका समय तो तभी आ सकता है जब भगवत्साक्षात्कार पूर्णतया पार्थिव चैतन्यमें आ जाय; तबतक जो भी कर्म होगा वह प्रयत्न और प्रयोगका ही क्षेत्र होगा।

मैंने भक्तिका कहीं निषेध नहीं किया है । न कभी ध्यानका ही निषेध किया होगा। मैंने अपने योगमें भक्ति और ज्ञानको उतना ही प्राधान्य दिया है जितना कि कर्मको । हाँ, इनमसे किसी एकको शंकर या चैतन्यके समान अनन्य- रूपसे सर्वोपरि नहीं माना है। साधनाके सम्बन्धमें जो कुछ कठिनाई तुम्हें या किसी भी साधकको मालूम होती है वह यथार्थमें ध्यान और भक्ति और कर्मके परस्परविरोधका प्रश्न नहीं है। कठिनाई है मनकी अवस्थाके सम्बन्धमें कि किस वृत्तिसे, किस ढंगसे (या इसका और जो चाहे नाम रखो) यह भक्ति अथवा ध्यान या कर्म किया जाय । [८९]